राज्य और राजशासन का स्वरूप

शिवाजी की मृत्यु के बाद, मराठा देश की की हालत सामान्य नहीं थी। शिवाजी के पौत्र शाहू जी जब 1707 में मुग़ल कारागार से छूटे, तब सरकारी तंत्र जिसे शिवाजी ने खड़ा किया था, पूरी तरह ध्वस्त हो चुका था। विभिन्न मराठा नेता स्वतंत्र रूप से सेना का गठन कर रहे थे, मुग़लों के क्षेत्र में सैन्य अभियान चला रहे थे, और अपने ख़र्चे पूरा करने के लिये राजस्व की उघाई कर रहे थे। शाहू जी ने अच्छी निर्णय क्षमता का परिचय देते हुए पहले बालाजी विश्वनाथ से और बाद में उनके पुत्र बाजीराव बल्लाल से मित्रता गाँठी; ये दोनों महान सेना नायक तो थे ही साथ ही कुशल प्रशासक भी थे।[5] जब वालाजी विश्वनाथ 1713 में पेशवा बने, तब उन्हें अहसास हुआ कि शिवाजी द्वारा गठित शासन प्रणाली जिसके तहत राजा (छत्रपति) ही अपने राज्य का अकेला शासक हुआ करता था और जो अपने आठ मंत्रियों (अष्टप्रधान) की सहायता से शासन करता था, अब व्यवहार्य प्रणाली नहीं रही। अपने ही युद्धस्वामियों के सामने राजा की प्रतिष्ठा न केवल घटी है, बल्कि ये युद्धस्वामी राजा के प्राधिकार से प्रभावी ढंग से मुक्त हो गये हैं। इस तरह, शिवाजी के घर को ढहने से बचाने और देश को गृह-युद्ध की आग में झुलसने से बचाने के लिये, पेशवा बालाजी विश्वनाथ ने एक नयी राजव्यवस्था का सृजन किया जिसके तहत मराठा प्रमुखों जिन्हें सरदार कहा जाता था, को बतौर जागीरदार स्वीकार कर लिया गया और वे अपने राज्य क्षेत्र में लगभग स्वतंत्र रूप से शासन करने लगे। ऐसा उन्हें वंशानुगत जागीरदार के रूप में मान्यता देकर किया गया अर्थात् एक ऐसा सामन्ती वर्ग जो राजस्व के रूप में कर वसूल सकता था और जिसे अपने राज्य क्षेत्र में शासन का अधिकार था। इसके एवज़, उनसे अपेक्षा की गयी कि वे आवश्यकता पड़ने पर छत्रपति के नाम से शासन करने वाले पेशवा की सेवा में अपना सैन्यबल लेकर आयेंगे। पर,अन्यथा, सरदार पूरी स्वाधीनता से अपनी जागीरों का प्रबन्धन करते थे और एक अर्ध-स्वतंत्र शासक की भाँति शासन कते थे।[6]

बाजी राव के चतुर्दिक आक्रमणों से अन्य मराठा सरदारों ने प्रेरणा ली और वे ख़ुद अपने आक्रमणों के ज़रिये अपने राज्यों का संवर्धन करने लगे। इससे ये सरदार और अधिक स्वायत्त हो गये और उन पर नियंत्रण रखना मुश्किल हो गया। ग्वालियर के सिन्धिया, इन्दौर व मालवा के होल्कर, और नागपुर के भोंसले इसी रीति से उभरे।[7] तथापि, यह मराठा संघ भारतीय उप महाद्वीप के बहुत बड़े हिस्से में फैला हुआ था।

इस युग ने अनेक प्रतिभावान प्रशासकों और सेना नायकों को देखा जैसे, महादजी सिन्धिया जिन्होंने मुग़ल बादशाह को अपनी कठपुली बनाया, इन्दौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर जो अपने नागरिक, सैन्य और साजस्व प्रशासन के लिये सुविख्यात हैं, और महान राजनेता नाना फड़नवीस जिनके प्रशासनिक, कूटनीतिक और वित्तीय कौशल की ख्याति चतुर्दिक फैली हुयी थी। देखिये जवाहरलाल नेहरू “भारत एक खोज” (1946) मेंअहिल्याबाई के विषय में क्या ख़ूब करते हैं:

मध्य भारत में इन्दौर की अहिल्याबाई ने तीस वर्ष राज किया। यह एक ऐसी किंवदन्तीपूर्ण पौराणिक अवधि है जिसके दौरान सम्पूर्ण शान्ति व सुशासन का राज रहा और प्रजा ख़ुशहाल थी। वह अत्यन्त योग्य शासक और संगठनकर्ता थीं। अपने जीवन-काल में तो वह असीम समादर की पात्र रहीं ही, अपितु अपनी इहलीला समाप्त होने पर भी कृतज्ञ जनमानस ने उन्हें सन्त का दर्जा दिया। [8]

केन्द्रीय प्रशासन

पूना स्थित हुज़ूर दफ़्तर जो पेशवाओं का सचिवालय था, मराठाओं के केन्द्रीय प्रशासन का संकेन्द्रण था। यह बहुत विशाल प्रतिष्ठान था, जिसमें अनेक विभाग और कार्यालय अवस्थित थे। हुज़ूर दफ़्तर के कामकाज में शामिल थेः लोक राजस्व का खाता अलगाव, सरंजाम (सैन्य सेवा में टुकड़ियों के भरण-पोषण के लिये भूमि), टुकड़ियों हेतु इनाम, या अन्यथा, सभी नागरिक, सैन्य और धार्मिक संस्थापनाओं के ख़र्चे।[9] इसके अलावा, पेशवा सचिवालय राजस्व व व्यय विषयक सरकार का सभी हिसाब-किताब और ज़िलों, गाँवों, खेतों व सीमाशुल्क का लेख-जोखा भी रखता था। हुज़ूर दफ़्तर का कार्यालय रोज़कीर्द नामक दैनिक पञ्जिका में विदेशी राज्यों के अंशदानों और उन पर बक़ाया के तक़ाज़ों से मिली राशि का हिसाब-किताब रखता था। सभी अभिलेखों का सम्पूर्ण संकलन करने के बाद तर्जुमाओं के माध्यम से इन्हें सम्यक रूप से प्रदर्शित किया जाता था।

सम्भवतः, हुज़ूर दफ़्तर के अधीन कार्यरत सर्वाधिक महत्व के दो विभाग थेःअल बेरीज़ दफ़्तर औरचलते दफ़्तर । पूना में स्थित अल बेरीज़ दफ़्तर जो सभी किस्म के लेखाओं का विवरण रखता था, का काम थाः वर्गीकृत लेखा रखना, राज्य की वार्षिक आय और व्यय का तुलनपत्र, तथा खतौनियों का रखरखाव-प्रत्येक व्यय को अकारादि कर्म से सँजोना। जहाँ तक चलते दफ़्तर का सम्बन्ध है, फड़नवीस नामक एक कर्मचारी वर्ग का इस कार्यालय पर पूर्ण नियंत्रण था। नाना फड़नवीस ने हुज़ूर दफ़्तर के कार्य सञ्चालन में अनेक सुधार किये, परन्तु अन्तिम पेशवा बाजी राव ।। के शासन काल में समूची व्यवस्था चरमरा कर बैठ गयी।[10]

प्रान्तीय एवं ज़िला प्रशासन

शिवाजी ने राष्ट्रीयकरण के अपने सिद्धान्तों के अनुसार अपने राज्य को तीन भागों में बाँटाः मौज़ा, तरफ़ व सूबा। तथापि, पेशवा काल के दौरान, तरफ़, परगना, सरकार और सूबा जैसे सभी शब्दों का प्रयोग अन्तर्विनिमय आधार पर होता रहा है। परन्तु सूबा को प्रान्त भी कहा गया जबकि तरफ़ और परगना ने अन्ततः महल का रूप ले लिया। कामविसदार नामक कर्मचारियों को छोटे प्रभागों का प्रभारी बनाया जाता था, जबकि मामलतदारों को बड़े प्रभागों की ज़िम्मेदारी दी जाती थी। मामलतदार सीधे केन्द्रीय शासन के मातहत होते थे, किन्तु ख़ानदेश, गुजरात और कर्नाटक के तीन प्रान्तों में वे सरसूबेदार नामक अधिकारियों के अधीन काम करते थे। इस प्रकार, कर्नाटक में सरसूबेदार करों के समाहरण के लिए ज़िम्मेदार थे और वे अपने ख़ुद के मामलतदार नियुक्त करते थे, किन्तु ख़ानदेश (सम्प्रति दक्षिण-पश्चिम मध्यप्रदेश) में, सरसूबेदार केवल सामान्य पर्यवेक्षण करते थे, जबकि यहाँ प्रत्येक मामलतदार पर करों की प्रत्यक्ष वसूली करने और इन करों को सीधे शासन में भेजने की ज़िम्मेदारी थी।[11]

इस प्रकार, मराठा ज़िला प्रशासन की दो रीढ़ थीं: पहली मामलतदार, जो प्रभाग शैली में गठित परगना या प्रान्त के प्रभारी होते थे, और दूसरी उनके अधीनस्थ या उप प्रमुख कामविसदार, जो इसी तरह के छोटे राज्य क्षेत्र का प्रभार सँभालते थे। वास्तव में, ये दोनों अधिकारी ही ज़िले में पेशवा के प्रतिनिधि होते थे। वास्तव में, ये कर्मचारीगण विभिन्न प्रकार की ज़िम्मेजारियाँ वहन करते थे, जिनमें शामिल हैं: कृषि और औद्योगिक क्षेत्र का विकास, दीवानी और फ़ौजदारी न्याय, स्थानीय नागरिक सेना का प्रबन्धन, और पुलिस। वे सामाजिक और धार्मिक विवादों में बीच-बिचाव भी करते थे। मामलतदार गांवों के पटेलों से सलाह-मशविरा के बाद ज़िला स्तर पर गाँवों के कर का निर्धारण करते थे। आवश्यकता पड़ने पर, मामलतदार शिब्बन्दी (स्थानीय नागरिक सेना) का गठन करते थे, राजस्व उगाही में मदद हेतु तत्पर रहती थी।[12] मामलतदार में कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों के कर्तव्य समाहित थे, परन्तु, वह पूर्णतः निरंकुश नहीं थे क्योंकि एक तो परम्परावश तथा दूसरे केन्द्रीय शासन की ओर से हरेक परगना में अधिकारी के रूप में नियुक्त आनुवंशिक ज़मीन्दार व दरख़दार मामलतदारों की शक्तियों पर अंकुश रखते धे। दरख़दार सीधे पेशवा के मातहत थे, और वे पूना स्थित शासन के प्रति सीधे जवाबदेह थे। इस प्रकार, स्थानीय स्तर पर, आठ कर्मचारी कार्यरत थे अर्थात्, दीवान या उप मामलतदार, फड़णीस, मज़ूमदार, दफ़्तरदार, पोटणीस, चिटणीस और सभासद। ये सभी कर्मचारी परस्पर एक-दूसरे पर निगरानी रखते थे और साथ ही, मामलतदार पर भी नज़र रखते थे, क्योंकि मामलतदार को इन कर्मचारियों में से किसी को भी बरख़ास्त करे का प्राधिकार नहीं था।[13]

अन्य अधिकारी जो मामलतदार पर निगरानी रखते थे, उनमें शामिल हैं: देशमुख एवं देशपाण्डे। उल्लेखनीय है कि कोई भी लेखा तब तक अनुमोदित नहीं होता था, जब तक संगत लेखे की सम्पुष्टि ये दोनों अधिकारियों यानि देशमुख एवं देशपाण्डे नहीं कर देते थे। ज़िलों में कारकुन भी पूरी तरह स्वतंत्र थे और वे स्थानीय शासन के काम-काज कोई अन्तर या विचलन पाये जाने पर उसकी सूचना सीधे पूना भेज देते थे। छोटे प्रशासनिक प्रभाग जिन्हें महल या तरफ़ कहा जाता था, भी उन्हीं नियमों के अनुसार सञ्चालित होते थे, जो ज़िले में लागू थे। महल का मुख्य अधिकारी हवलदार था, जिसके सहायक थे मज़ूमदार और फड़णवीस।[14]

गाँव का प्रशासन

राज्य के उच्च स्तरों पर जो वंश परिवर्तन हो रहा था, उससे ग्रामीण संगठन कभी प्रभावित नहीं हुआ क्योंकि शासन का गाँवों की अन्तरिक स्वायत्तता में हस्तक्षेप नहीं के बराबर था। पेशवा शासन में भी, स्वतःपूर्ण गाँव प्रशासनिक की प्राथमिक इकाई बने रहे। हर गाँव में एक मुखिया, पटेल, होता था, जो किसान समुदाय से आता था और जो राजस्व अधिकारी और मजिस्ट्रेट व न्यायाधीश दोनों के फ़र्ज़ संयुक्त रूप से निभाता था। पटेल का पद आनुवंशिक था, और उसकी नियुक्ति माल की बिक्री व ख़रीद के अध्यधीन थी। उसकी यह स्थिति इस तथ्य के बावजूद थी कि उसकी यह हैसियत उसे शासन ने सोंपी है। उसके वेतन व भत्ते गाँव दर गाँव थोड़े भिन्न होते थे और इनमें भाड़ा-मुक्त ज़मीन व प्रत्येक ग्रामीण से उसकी फसल का एक निश्चित भाग की प्राप्ति शामिल है। पटेल के कन्धों पर गाँव के कल्याण की ज़िम्मेदारी तो थी ही, साथ ही उसे सदाचारी होना भी ज़रूरी था। कुलकर्णी के नाम से ज्ञात ग्राम-लिपिक व अभिलेखपाल एक ब्राह्मण होता था और उसे पटेल की तरह अनेक परिलब्धियाँ व सुविधाएं मिलती थीं। पटेल की तरह उसे भी सदाचारी व व्यवहार कुशल होना आवश्यक था और उस पर आकस्मिक आक्रान्ताओं एवं क्रूर कर्मचारियों द्वारा बन्दी बनाये जाने का ख़तरा मँडराता रहता था। ग्रामीण प्रशासन के कुशल कार्य-सञ्चालन के लिये एक अन्य महत्वपूर्ण स्थानीय अधिकारी थाः महार। उसे हर खेत की सीमाओं की जानकारी रहता थी।

वह गाँव से गुज़रने वाले हर व्यक्ति पर नज़र रखता था और चोरों व अपराधियों से गाँव को बचाता था। वह शासकीय ख़ज़ाने को परगना मुख्यालय तक पहुँचाता था।[15]

राजस्व और कर-निर्धारण

पेशवाओं की राजस्व नीति इस सिद्धान्त पर आधारित थी कि करदाताओं की समृद्धि सुनिश्चित होती रहे। चूँकि भारत में कृषि प्रमुख व्यवसाय था, इसलिये पेशवाओं के लिये भू राजस्व आय का प्राथमिक स्रोत था। मराठा संघ ने शिवाजी की खेतिहर किसानों को प्रोत्साहन देने की नीति को अपनाया, जिसके अनुसार ज़्यादा से ज़्यादा भूमि खेती योग्य बनाई जाती थी और महत्वपूर्ण बात यह है कि हाल में खेती योग्य बनायी गयी भूमि पर कर कम लगाया जाता था। पेशवा माधवराव ।। ने घोषणा की थी कि इस ऐसी भूमि का आधा भाग बतौर इनाम दिया जायगा और शेष आधे हिस्से पर भाड़ा-मुक्त रियायतें बीस वर्ष दी जायेंगी। इसके बाद भी, इस आधे हिस्से पर अगले पाँच वर्ष के लिये कर अन्तराल की सुविधा उपलब्ध रहेगी। भू राजस्व से परिहार अकाल, सूखा, फ़सलों की लूट या फ़सल असफलता की स्थितियों में मंज़ूर किया जाता था। मराठा राज्य खेतिहर किसानों को तगोई नाम से ज्ञात ऋण भी उपलब्ध कराता था और इस ऋण पर पारम्परिक महाजनों द्वारा लिये जाने वाले ब्याज के मुक़ाबले बहुत ही कम ब्याज लिया जाता था।[16]

न्यायिक प्रशासन

प्राचीन हिन्दू विधि-निर्माताओं का प्रभाव सम्भवतः मराठाओं की न्यायिक व्यवस्था के अलावा और कहीं इतना स्पष्ट नज़र नहीं आता। मराठा विधि मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति से व्युत्पन्न मिताक्षरा विधि-विधान पर आधारित है। दीवानी और फ़ौज़दारी न्याय अपेक्षाकृत सहज व सरल ढंग से किया जाता था। इस व्यवस्था के तहत, समुदायों को अपने विवाद ख़ुद सुलझाने की दृष्टि से अपने संसाधनों पर ही निर्भर रहना पड़ता था। गाँव में न्यायिक अधिकारी पटेल, ज़िले में मामलतदार, उसके ऊपर सरसूबेदार और इसके बाद पोशवा। सबसे ऊपर थे छत्रपति गृह की ओर से सतारा के राजा, जो न्याय व सम्मान के उद्गम थे।

कस्बों में न्यायिक कार्य न्यायाधीश को सोंपे जाते थे जो शास्त्रों में पारंगत होते थे और जो केवल न्यायिक कार्य ही करते थे। इस प्रकार, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच कार्यों का पृथक्करण होना चाहिये, इस संकल्पना से मराठा सुपरिचित थे। गम्भीर अपराधों जैसे डकैती, हत्या, राजद्रोह के लिये सामान्यतः जो दण्ड दिये जाते थे, वे हैं: सम्पत्ति का अधिग्रहण, अपराधी को क़ैद करना अथवा अंग-भंग।[17] राजमार्गों पर लूटपाट के लिये मृत्युदण्ड दिया जाता था। स्त्रियों को कभी मृत्युदण्ड नहीं दिया जाता था। कठोर दण्ड के बावजूद सामान्य क़ैदियों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था। उन्हें धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न करने के लिये घर जाने की अनुमति दे दी जाता थी। कभी-कभार क़ैदियों के सगे-सम्बन्धियों को उनके साथ रहने की अनुमति दी जाती थी और उनके भोजन का ख़र्चा शासन उठाता था। मराठा न्याय व्यवस्था की एक आश्चर्यजनक विशेषता यह थी कि दण्ड का प्रयोजन अपराधियों में सुधार लाना है, न कि उन्हें असीम निराशा की स्थिति में धकेलना, और कठोर अपराधी बनाना।[18]

 

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