848 ई. - 1279 ई.
मध्यकालीन और उत्तरवादी चोल शासक
मध्यकालीन और उत्तरवादी चोल शासक संगम युग के प्राचीन चोल वंश के वंशज थे। 9वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य में, चार शताब्दियों तक शासन करने के बाद ये दक्षिण भारत में प्रमुखता से उभरे और दुनिया के सबसे महान समुद्री साम्राज्यों में से एक साम्राज्य की स्थापना की। मध्यकालीन चोलों को इंपीरियल चोलों के नाम से भी जाना जाता है, जिन्होंने अपनी नौसैनिक शक्ति के बलबूते संपूर्ण तमिल प्रदेश को एक शक्तिशाली राज्य में बदल दिया और पूर्वी तट के उत्तर में कलिंग से लेकर, दक्षिण पूर्व एशिया, श्रीलंका तथा मालदीव तक प्रभाव दिखाकर शाही स्थिति का दावा किया। ये मध्यकालीन चोलों के शासक वेंगी पर नियंत्रण के लिए पूर्वी चालुक्यों के साथ निरंतर संघर्षरत थे।[1] हालाँकि, उत्तरवादी चोलों के अधीन दोनों राज्य एक ही राज्य में विलीन हो गए। आदित्य प्रथम (871 सीई - 907 सीई), राजराज प्रथम (985 सीई - 1014 सीई), राजेंद्र चोल (1014 सीई - 1044 सीई), और कुलोत्तुंगा प्रथम (1070 सीई - 1122 सीई) चोल वंश के महानतम राजा थे । राजराज प्रथम को सबसे महान शासक माना जाता है क्योंकि उन्होंने एक घनिष्ठ और कुशल नागरिक सेवा की व्यवस्था कर नौसेना के महत्व और समुद्री व्यापार को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित किया था। इनके शासनकाल में धर्म, वास्तुकला, चित्रकला और साहित्य का भी विकास हुआ।[2]
प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के चोल शासकों ने एक अत्यधिक केंद्रीकृत साम्राज्य का निर्माण किया, जिसे इनकी कुशल नौकरशाही की बेहतरीन कार्यप्रणाली की शक्ति के रूप में व्यक्त किया गया है। इसे कई रेजिमेंटों की शक्तिशाली सेना और नौसेना का समर्थन प्राप्त था। आधुनिक सरकारों में 'सचिवालय' के समान, राज्य के दैनिक प्रशासन की देखभाल का दायित्व केंद्रीकृत नौकरशाही तंत्र का था। चोल साम्राज्य की विभिन्न प्रशासनिक इकाइयों में केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों के रूप में अधिकारियों को पदानुक्रम तैनात किया जाता था, इस अवधि में ग्राम सभाओं को स्वायत्तता दी गई थी।[3]
चोल साम्राज्य के ग्राम प्रशासन की व्यापक रूप से प्रशंसा की जाती है क्योंकि हमें उनके स्थानीय स्वशासन में लोकतांत्रिक पद्धति का प्रमाण मिलता है। चोल राजा परान्तक प्रथम (907-953 ई.) के शासनकाल के उत्तरमेरुर शिलालेख में कहा गया है, “भारत दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र है, यह लोकतंत्र की जननी है। इसके कई ऐतिहासिक संदर्भ मौजूद हैं। ऐसा एक महत्वपूर्ण संदर्भ तमिलनाडु है। वहां मिला शिलालेख ग्राम सभा के लिए स्थानीय संविधान जैसा है। यह बताता है कि विधानसभा कैसे चलनी चाहिए, सदस्यों की योग्यता क्या होनी चाहिए, सदस्यों को चुनने की प्रक्रिया क्या होनी चाहिए और किसी सदस्य को कैसे अयोग्य ठहराया जाएगा।”[4]
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