1000- 600 ईसा पूर्व

वैदिक युग के बाद

हमने वैदिक युग के अंतिम दौर में लोक प्रशासन कि एक नई विचारधारा के सबूतों की खोज की है। इस युग का महत्व अद्वित्य था क्योंकि इसी दौरान ऐसी विचारधाराएं और अवधारणाएँ उभरीं जिसने बाद में देश के प्रशासनिक विकास पर अपनी गहरी छाप छोड़ी। आर्य धीरे-धीरे एक बड़े मैदान की तरफ आगे बढ़ते गए। यहाँ के जमीनी ढंग ने उनके प्रशासनिक संस्थानों और राजनीतिक विचारों को बहुत हद तक प्रभावित किया। धीरे-धीरे राजनीतिक और सार्वजनिक प्रशासनिक गतिविधियों का केंद्र तेजी से पूर्व की ओर गंगा घाटी की तरफ स्थानांतरित हो गया। इस क्षेत्र में कई बड़े राज्यों का गठन हुआ, जिनके पास एक बड़ी संपत्ति थी, और वो उत्तर, पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में कई छोटे राज्य से घिरे हुए थे। इन राज्यों की उत्पत्ति ज़्यादातर पुरानी जातियों और समुदायों से हुई। कुछ मामलों में तो, कई जातियाँ और खंड समुदाय क्षेत्र के किनारे में बस गए और नए राज्यों का गठन किया। लेकिन, बहुतायत मामलों में, इन राज्यों का विकास पुराने जाति और खंडों की पुनर्गठन के फलस्वरूप हुआ। ये नए राज्य, जो आंशिक रूप से पलायन और आंशिक रूप से गठजोड़-अवशोषण के माध्यम से उत्पन्न हुए थे, उन पर या तो प्राचीन राजवंशों या पुराने राजवंशों द्वारा शासन किया गया था जिन्होंने अपने रिश्तेदारों के खिलाफ अपनी क्षमता साबित की थी। इनमें से कुछ राज्य यहाँ ज़िक्र योग्य हैं: कुरु, पांचाल, मत्स्य, उशीनर, कोसल, काशी, विदेह, अंग, मगध, चेदि, सात्वत, विदर्भ।[1] इन राज्यों के उदय से ही प्रशासनिक कौशल और प्रयासों में महत्वपूर्ण बढ़ोतरी हुई।

आदिवासी प्रधान राज्यों के पहले छोटे साम्राज्यों और फिर राजधानी वाले राज्यों में परिवर्तन होने से इस काल में एक नई प्रशासनिक व्यवस्था का जन्म हुआ। देहाती से मिश्रित कृषि अर्थव्यवस्था में रुझान ने बाद की वैदिक राजनीति को प्रभावित किया। इस प्रशासनिक परिवर्तन ने राजा और उसकी परिषद की स्थिति को बदल दिया। अब राजा केवल पशुओं का संरक्षक नहीं था बल्कि पूरे क्षेत्र का संरक्षक बन गया था।[2]

ऋग्वैदिक काल का शक्तिशाली वंश, राजन्य, अब 'क्षत्रिय' बन गया, जिसका मतलब होता है कि उनके पास किसी क्षेत्र पर शासन करने का अधिकार था। बाद की संहिताओं में राजसूय (शाही अभिषेक) के वर्णन में राजा को सामान्य रूप से लोगों और विशेष रूप से ब्राह्मणों के "संरक्षक" के रूप में दिखाया गया है। इस सुरक्षा के बदले में, राजा को (प्रजा की आय) पर रहने की अनुमति दी गई थी. चूँकि राजा व्यवस्था का संरक्षक था, तो उसे भगवान का समकक्ष माना जाता था। और उसकी संप्रभुता को नैतिक समर्थन देने के लिए अलग अलग रीती रिवाज़ अस्तित्व में आए।[3]

जैसे जैसे राजनीतिक जीवन के पहलुओं में बड़े परिवर्तन हुए, विभिन्न राजनीतिक संगठनों के अधिकार और कर्तव्यों को भी सुचारू रूप से परिभाषित किया गया। पहले की विधानसभाओं अर्थात सभा और समिति के स्वभाव में भी काफ़ी बदलाव आया और इसके साथ ही उनकी ज़िम्मेदारियों में भी। इस तरह, बढ़ती राजनीतिक मशीनरी और प्रमुख राजनीतिक विचारों के बीच, राजकर्ता या राजकर्ताओं का उदय हुआ[4] जो राजा के परिषद के शुरुआती गठन को प्रतिबिंबित करते हैं। इस अवधि में एक मौलिक कर व्यवस्था भी उभरी, क्योंकि हमें नियमित चंदा और कर के लिए नियुक्त अधिकारियों का उल्लेख मिलता है।[5]

Megh Kalyan Sundaram highlights valuable insights on the Later Vedic

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Figure is not drawn to scale, and should not be taken as a precise representation of the geographical spread.