600 - 300 ईसा पूर्व
महाजनपदों का युग
महाजनपद अधिकांशतः राजतंत्रीय राज्य होते थे जहां राजवंशीय राजा के पास पूर्ण शक्तियां और नियमित सेना होती थी और वे जनपद या राज्य नामक एक परिभाषित क्षेत्र पर शासन करते थे । हालांकि, उनमें से कुछ गणतंत्र थे जिन्हें गण या गणसंघ या गणराज्य के नाम से जाना जाता था । यद्यपि गंगा के मैदानी भागों में राजतंत्रों का संकेंद्रण था, तथापि गणतंत्र हिमालय की तलहटी और उत्तर-पश्चिमी भारत में बिखरे हुए थे। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के समय तक, पाणिनि ने 22 विभिन्न जनपदों का उल्लेख किया है। प्रारंभिक बौद्ध और जैन साहित्य में उस समय के महाजनपद का वर्णन मिलता है। वे सोलह महाजनपदों की एक सूची प्रस्तुत करते हैं।[1] संभवतः छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास, आधुनिक अफगानिस्तान के गांधार से लेकर बंगाल की सीमाओं तक पूरा भारतीय उपमहाद्वीप मोटे तौर पर सोलह प्रमुख रियासतों में विभाजित था। प्रारंभिक काल के कई जनपद इस समय महाजनपदों में विकसित हुए। कुछ लोकप्रिय महाजनपद अंग, मगध, काशी, कोसल, वज्जि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरु, पांचाल, मत्स्य, सुरसेन, अस्माक, अवंती, गांधार और कंबोज थे। लिच्छिवी, मल्ल, शाक्य, वज्जि कुछ महत्वपूर्ण गणराज्य थे।[2]
राजाओं और उनके अधिकारियों द्वारा प्रशासन के कार्यों के संबंध में साक्ष्य उपनिषदों, बौद्ध प्रामाणिक धर्म संग्रहों, जातक परंपरा या धर्मसूत्र साहित्य से प्राप्त जानकारी से प्राप्त होते हैं। इस प्रकार के साहित्य में उस काल के राजनीतिक जीवन का भी वर्णन है । राज्य तंत्र के सभी लेखक इस बात पर सहमत हैं कि शासन-व्यवस्था को सफलतापूर्वक चलाने के लिए राज्य को एक कुशल शासन व्यवस्था का निर्माण करना चाहिए जिसके शीर्ष पद में राजा अथवा सरदार हो, जिनकी सहायता के लिए अधिकारियों का एक समूह हो। प्रशासन के खर्चों को पूरा करने के लिए कराधान की एक विस्तृत प्रणाली तैयार की गई थी। इस समय की राजव्यवस्था की सबसे विशिष्ट विशेषता यह थी कि राजशाही और गणतंत्र दोनों ही कल्याणकारी राज्य के आदर्श के रूप में कार्य करते थे। उनकी शासन प्रणाली में लोक शासन और कर उगाही के मामलों में धर्म यानि कर्तव्य के न्यायसम्मत आचरण के नियम का अनुपालन किया जाता था।[3]
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