राजपद

राजा केन्द्रीय सरकार का प्रमुख होता था। अपने शुरुआती दिनों में पल्लव राजपद एक तरह से वंशानुगत था क्योंकि परिवार का केवल एक वैध पुरुष सदस्य ही सिंहासन पर बैठता था। परन्तु सिम्हाविष्णु (556-590 ई.) के समय से ज्येष्ठाधिकार के नियम का कड़ाई से पालन नहीं किया गया। कुछ मामलों में, ऐसा प्रतीत होता है कि किसी राजा-विशेष के बाद उसका छोटा बेटा या भाई, या यहाँ तक कि चचेरा भाई भी पल्लवों की गद्दी पर आसीन हुआ। कासाकुडी की प्लेटें यह वर्णन करती हैं कि सिम्हाविष्णु का भाई भीमवर्मन, महेंद्रवर्मन प्रथम (590-630 ई.) से पूर्व कुछ समय के लिए राजा बना था। हमें बाद के पल्लवों शासकों के काल में राजा के चुनाव का संदर्भ भी मिलता है। जब चालुक्यों के साथ युद्ध के दौरान परमेश्वरवर्मन द्वितीय (725-731) की मृत्यु हो गई और गंग और पल्लव साम्राज्य में अराजकता फैल गई, तो राज्य के जिम्मेदार लोगों का यह मानना था कि उसका उत्तराधिकारी शासक एक योग्य और संसाधनसमर्थ व्यक्ति होना चाहिए, न कि कोई ऐसा बालक अपने पिता की जगह ले, जो राज्य का प्रशासन संभालने में बहुत कुशल नहीं है। उन्होंने उस समय के अनुभवी प्रशासक हिरण्यवर्मन को चुना, जिनका चयन प्रशासनिक और सैन्य मामलों में उनके अनुभव के आधार पर उचित था। वैध उत्तराधिकारी, चित्रमाया, जो उस समय तुलनात्मक रूप से युवा और कमजोर था और बाद में भी, जब वह वयस्क हुआ, तो भी वह ऐसा ही रहा, उसे यह उत्तरदायित्व निभाने के लिए चुना नहीं गया। इस चुनाव का विवरण वैकुंठपेरुमी मंदिर के महत्वपूर्ण संवैधानिक दस्तावेज में अभिलेखबद्ध है।[4]

हालाँकि, परमेश्वरवर्मन द्वितीय की मृत्यु के उपरांत पल्लव सिंहासन का वास्तविक उत्तराधिकारी हिरण्यवर्मन का पुत्र नंदिवर्मन द्वितीय था, जो पल्लवों की सहयोगी पंक्ति से संबंध रखता था था, जिसे कदव कहा जाता था। उनका जन्म उस देश में पल्लव वंश के एक स्थानीय राजवंश में हुआ था जिसे अब चंपा (आधुनिक वियतनाम) के नाम से जाना जाता है। जब बिना किसी उपयुक्त उत्तराधिकारी के परमेश्वरवर्मन द्वितीय की मृत्यु हो गई, तो मंत्री और सलाहकार मौलिक वंश के राजकुमार की खोज करने के लिए पड़ोसी राज्यों और विशिष्ट भू-भागों की ओर इस अभियान पर निकल पड़े। जब वे कंबुजादेसा पहुंचे, जो अब कंबोडिया और दक्षिणी वियतनाम का भाग है, तो उन्होंने पाया कि नंदिवर्मन द्वितीय उसी मौलिक वंश से संबंध रखता था और सिंहासन पर आसीन होने के लिए इच्छुक भी था। अत: उसे पल्लव देश की गद्दी पर बिठाया गया। चूंकि वह अवयस्क था, अत: उसके पिता को उस समय तक राज्य पर शासन करने के लिए चुना गया, जब तक नंदिवर्मन द्वितीय राज्य का उत्तरदायित्व ग्रहण नहीं कर लेता। पल्लव साम्राज्य के सिंहासन पर बैठने पर, वह (नंदिवर्मन द्वितीय, लगभग 731 ई. - लगभग 796 ई.) एक सक्षम प्रशासक और सैन्य जनरल साबित हुआ। यहां हमारे पास न केवल एक ऐसा उदाहरण है, जहां पल्लव साम्राज्य के मंत्रियों और अन्य अधिकारियों ने उचित राजा के चुनाव में भाग लिया, बल्कि यह समग्र रूप से लोगों के राजनीतिक उत्तरदायित्व का एक उत्कृष्ट भी उदाहरण भी है।[5]

पल्लव राजाओं ने अनेक शाही उपाधियाँ धारण कीं जैसे महाराजाधिराज, धर्ममहाराजा और धर्ममहाराजाधिराज, जो न केवल एक विजेता के तौर पर बल्कि धार्मिकता (धर्म) के संरक्षक के रूप में उनके चरित्र को दर्शाती हैं। बाद के पल्लव राजाओं ने भी अपनी वंशावली को भगवान ब्रह्मा से जोड़ने का प्रयास किया, जिसे उसकी ओर से अपनी दैवीय उत्पत्ति होने दावा करने के प्रयास के रूप में समझा जा सकता है। अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए, पल्लव राजाओं ने वाजपेय और अश्वमेध जैसे समारोह आयोजित कर वैदिक बलिदान भी दिए। पल्लव राजा समस्त कलाओं में पारंगत और अत्यधिक सुसंस्कृत थे। उदाहरण के लिए, हमारे पास महेंद्रवर्मन प्रथम का एक उत्कृष्ट उदाहरण है जो संस्कृत नाटकों के लेखक, एक महान संगीतकार और हर दृष्टि से एक शाही कलाकार था। नरसिंहवर्मन द्वितीय जो राजसिम्हा पल्लव के नाम से लोकप्रिय था और नंदीवर्मन द्वितीय को भी दर्शन और राजनीति के समस्त साहित्य में एक पारंगत राजा के रूप में वर्णित किया जाता है। पल्लवों के अधीन, सिंहासन के उत्तराधिकारी युवराज को युवामहाराजा कहा जाता था और यहां तक कि उसकी पत्नी भी प्रशासन के मामले में पर्याप्त उच्च स्थान हासिल किया करती थी।

मंत्रिपरिषद

प्राचीन भारतीय लेखकों द्वारा राजनीति के इस रूप पर व्यापक रूप से सहमति व्यक्त की गई है कि किसी राजा को सदैव ही मंत्रियों के समूह के साथ मिलकर काम करना चाहिए और उनके सहयोग से ही शासन करना चाहिए। पल्लव सरकार का प्रशासन प्राचीन क़ानून निर्माताओं के परामर्श का खंडन करता प्रतीत नहीं होता है। भारवि द्वारा रचित एक समकालीन संस्कृत महाकाव्य किरातार्जुनीय में लिखा है, "हर प्रकार की समृद्धि वहां वास करने में प्रसन्न होती है जहां राजा और मंत्री सदैव परस्पर अच्छा व्यवहार रखते हैं।"[7] साक्ष्य से पता चलता है कि पल्लव राजा अपने मंत्रियों की सहायता और सलाह लेने में भारवि के आदर्श के अनुसार शासन करते थे। राज्य अभिलेखों से पता चलता है कि मंत्रियों ने निष्ठापूर्ण सेवा प्रदान करते हुए राजाओं की प्रशंसा अर्जित की। पल्लव राजाओं की अपनी एक मंत्रिपरिषद होती थी, इसकी पुष्टि वैकुंठपेरुमल शिलालेख से होती है, जो पल्लव सरकार के 'मंत्रिमंडल' का महत्वपूर्ण परिचय देता है। अधिकारियों की परिषद (मंत्रिमंडला) को उस समूह में सबसे पहले सूचीबद्ध किया गया है जिसने नंदिवर्मन द्वितीय को चुना और उसे राजा का ताज पहनाया। इसके बाद ही सामंत और अन्य लोग आते हैं।[8]

पल्लवों के शासन काल में अमात्य और मन्त्रिन मंत्रियों के पदनाम प्रतीत होते हैं। मन्त्रिन को आम तौर पर एक राजनयिक के रूप में माना जाता था, जबकि अमात्य अधिकांशत: सलाहकार की भूमिका का निर्वहन किया करता था। हीरादगल्ली पट्टिकाओं पर, अमात्यों को एक ब्रह्मदेय अनुदान के बारे में बताते हुए दर्शाया गया है जो राजा अपनी राजधानी कांची से दिया करता था। सभी सम्भावनाओं में, वह राजा का सलाहकार या नागरिक शासन का पर्यवेक्षक हुआ करता था।[9] मंत्री पल्लव साम्राज्य के भागों पर शासन करते थे और केंद्र सरकार को प्रदान की जाने वाली सेवाओं के बदले में राजस्व प्राप्त किया करते थे। मंत्री दान के संबंध में राजा द्वारा दिए गए आदेश का पालन भी करते थे। इस प्रकार, हम देख सकते हैं कि पल्लव के मंत्रियों के पास कार्यकारी जिम्मेदारियाँ भी थीं। उन्होंने न केवल प्रशासनिक मामलों में बल्कि राज्य की विदेश नीति से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी महत्वपूर्ण सहायता और सेवा प्रदान की। ऐसा प्रतीत होता है कि मंत्रिमंडल के कुछ मंत्रियों को युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया गया था और इस प्रकार उनके पास सैन्य अनुभव भी मौजूद था। पुरोहित, जो भारतीय इतिहास के आरंभिक काल से ही राजा के सलाहकार के रूप में कार्य करते थे, मंत्रालय के एक महत्वपूर्ण सदस्य थे। संदर्भों से पता चलता है कि कभी-कभी, मंत्री और शाही पुरोहित के कार्यालयों को आपस में जोड़ कर एक कर दिया जाता था।[10]

दिलचस्प बात यह है कि पल्लवों के अधीन मंत्रियों के पास राजघराने की विशिष्ट उपाधियाँ थीं। लेकिन पल्लव सरकार के मंत्रियों के बारे में सबसे उल्लेखनीय बात यह थी कि उनके चयन में मनुस्मृति, बृहस्पति स्मृति, महाभारत और कामन्दक के नीतिसार द्वारा मंत्रियों के चयन के लिए दिए गए निर्देशों का अनुपालन किया जाता था। पल्लव शिलालेखों में पाए गए कुछ मंत्रियों के गुणों का वर्णन इस बात को साबित करता है। कासाकुडी पट्टिकाओं में नंदिवर्मन के एक मंत्री का वर्णन है जिसने ब्रह्मा श्री राजा की उपाधि धारण की थी, जो यह कहता है कि: ब्रह्मा श्री राजा जो विश्व का मित्र था; जो रत्नों के अम्बार से लबालब किसी सागर के समान सभी समस्त गुणों और नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण था; जो विख्यात, विनम्र, सुंदर और दीर्घायु था; जिनकी वाणी कभी कठोर नहीं होती; जो अन्य मनुष्यों की तुलना में विशिष्ट था; जो बिलकुल स्वर्ग के स्वामी के मुख्यमंत्री बृहस्पति के समान था, जो पृथ्वी के स्वामी और लोगों के मन-मस्तिष्क और हृदयों को प्रसन्न करने वाले पल्लव राजा नंदिवर्मन का प्रधानमंत्री था, जो थे; जो प्रकृति द्वारा और शिक्षा के माध्यम से परिष्कृत था; जो सभी विद्वानों में अग्रणी था; दृढ़ और बहादुर था; जिनके पास ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियों का संपूर्ण और अटल वैभव था; और गौरवशाली नंदीपोतराजा के प्रति तब तक अकाट्य निष्ठा थी, जब तक चंद्रमा और तारे आकाश में रहेंगे; जो उसके परिवार का मुख्य आधारस्तंभ था; जो ज्येष्ठ पुत्र था; जो अपने स्वभाव में शिव के अवतार के समान था; जो सभी गुणों में निपुण था और ज्येष्ठतम पुरोहित था।[11]

प्रशासनिक अधिकारी और उनके कार्य

पल्लवों के अधीन, एक नए प्रकार के प्रशासन का विकास हुआ जिसने दक्षिण की स्थानीय संस्थाओं पर सरकार के उत्तर क्षेत्र में लागू मानकों की एक अधिरचना क्रियान्वित की, जैसा कि शिवस्कंदवरम की हिरहादल्ली तांबे की पट्टिकाओं, विजयस्कंदवर्मन की ओमगोडु पट्टिकाओं, स्कंदसिस्या की रायकोटा पट्टिकाओं और परमेश्वरवर्मन की कुरम पट्टिकाओं से देखा जा सकता है।[12] विशायिकों को राष्ट्र (प्रांत) का प्रभारी बनाया गया था, जो मंडलों के समान प्रतीत होता है, जबकि कोष्टक या कोट्टम और ग्राम जैसे छोटे प्रभागों का प्रभारी देसातिकादों और वापित्तों को बनाया गया था। वपित्तों ने गाँवों में शाही हितों की देख्रेख की। राजाओं द्वारा रहस्यादिकाद या रहस्याधिकर्ता (प्रिवी काउंसलर) कहे जाने वाले मंत्रियों से राज्य के मामलों पर परामर्श लिया जाता था और उन्हें शाही विश्वास प्राप्त था। मंडपी सीमाशुल्क के संग्रहण के लिए नियुक्त अधिकारियों का वर्ग था और उनके कार्यालय को मंडप कहा जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि पल्लव अभिलेखों में उल्लिखित गुमिका नामक अधिकारी वन अधिकारी थे। नंदिवर्मन के एक शिलालेख में राज्य के उच्च अधिकारियों में एक महादंडनायक (कमांडर-इन-चीफ) के नाम का उल्लेख किया गया है।[13]

प्रारंभिक पल्लव राजा शिवस्कंदवर्मन के शिलालेख में, जिसने 275 से 300 ई. तक शासन किया था, प्रशासनिक अधिकारियों की सबसे लंबी सूची संरक्षित है। इस सूची में युवराज (राजकुमार), सेनापति (जनरल), राष्ट्रिक (जिलों के प्रशासक?), देसाधिकृत या देशाधिपति (प्रांत के प्रभारी अधिकारी), ग्राम-भोजक (ग्राम स्वतंत्र-धारक?), अमात्य, अरक्षाधिकृत (रक्षक), गौल्मिक (सैन्य चौकियों के प्रमुख), तैरथिक (जंगलों के पर्यवेक्षक), नैयोगिक, भट्टमनुष्य (सैनिक), और सहचरांतक (जासूस) शामिल हैं। सहचरान्तक लोगों के आचरण पर नजर रखते थे। युक्तों का संदर्भ भी दिया गया है जो केंद्रीय के साथ-साथ स्थानीय सरकार के सदस्य थे। अन्य महत्वपूर्ण अधिकारी तीर्थिक थे जो स्नान स्थलों और घाटों का कार्यभार संभालते थे और नायक थे जो देश भर में स्थापित चौकियों की देखभाल करते थे।[14] इन सभी से संकेत मिलता है कि पल्लवों द्वारा सरकारी संगठन की एक विस्तृत प्रणाली विकसित की गई थी।

ग्राम प्रशासन

गाँवों और कस्बों का प्रशासन स्थानीय सभाओं, अर्थात् सभा और नगरत्तार द्वारा किया जाता था। गांवों और कस्बों में, जल आपूर्ति और अन्य महत्वपूर्ण स्थानीय कार्यों के लिए व्यापक भूमि सर्वेक्षण के उपाय भी किए गए थे।[15] बाद की अवधि के पल्लवों के समय तक, ग्राम संगठन सामान्य ग्राम प्रशासन के आर्थिक, वित्तीय और न्यायिक कार्यों का प्रबंधन किया करते थे। प्रारंभिक संस्कृत शिलालेखों में, जहां उपहार में दी गई भूमि का सूक्ष्म विवरण दर्ज किया गया है, ग्रामीण स्तर पर भूमि सर्वेक्षण विभागों की दक्षता को दर्शाया गया है। उमवापल्ली पट्टिकाएं इस प्रकार के व्यापक भूमि सर्वेक्षण का एक उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। गाँव का ऐसा प्रबंधन दर्शाता है कि स्थानीय स्तर पर भी पल्लवों के अधीन सरकार और प्रशासन की व्यवस्था अत्यधिक व्यवस्थित तो थी ही, साथ ही नौकरशाही प्रकृति की भी थी।[16] इस अवधि के अभिलेख हमें बताते हैं कि गाँव और केंद्र सरकार समस्त कृषियोग्य और बंजर भूमियों, टैंकों, झीलों, कुओं और नदियों, चट्टानों और यहाँ तक कि पेड़ों का भी रखरखाव करती थीं। पल्लवों द्वारा विशेषकर रूप से सिंचाई पर अत्यधिक ध्यान दिया जाता था। ग्राम प्रशासन में शामिल ग्राम प्रधान, जिसे वियावान के नाम से जाना जाता था, ग्राम सरकार से कुछ पारिश्रमिक पाने का हकदार हुआ करता था।[17]

कराधान और राजस्व

राज्य के राजस्व में कराधान की अनेक मदें और केंद्र सरकार को भुगतान किया जाने वाला बकाया शामिल था। भू-राजस्व आय का प्रमुख स्रोत था। पल्लव काल में भूमि कर को इंगित करने वाले 'इराई' का उल्लेख मिलता है। राज्य नमक का विनिर्माण किया करता था और इसके उत्पादन पर उसका एकाधिकार भी था। हालाँकि, पल्लव शिलालेखों में तेल इकाइयों, करघों, स्टालों, चीनी विनिर्माण, अनाज, सुपारी, पशुओं जैसे बैल, ताड़ी निकालने वालों और चरवाहों, विवाहों, कपड़े, मालवाही मवेशियों आदि पर लगाए गए अनेक करों का उल्लेख है।[18] पल्लवों के विभिन्न अभिलेखों में अभिलेखबद्ध राजस्व की मुख्य मदें इस प्रकार हैं: [19]

  1. इलमपुच्छ: किसी विशेष पेशे पर अधिरोपित किया जाने वाला या लगाया जाने वाला कर या शुल्क।
  2. इडैइपुचि : "इडैइयार" या पशुपालकों पर अधिरोपित किया गया या उनके द्वारा दिया जाने वाला कर।
  3. ब्राह्मणरसक्कनम्: ब्राह्मणों (पुजारियों) द्वारा राजा को दिया जाने वाला कर।
  4. कल्लानक्कनम: विवाह के अवसर पर राजा को की गई किसी छोटी रकम का भुगतान (कनम)।
  5. कुसाक्कणम: गाँव के कुम्हारों द्वारा राजा को दिया जाने वाला धन का योगदान।
  6. तत्तुक्कयम: सुनारों पर लगाया गया व्यावसायिक कर।
  7. विशाक्कनम: वियावान या ग्राम प्रधान को भुगतान की जाने वाली बकाए की राशि। गाँव के प्रत्येक सदस्य को वियावान के अनुरक्षण के लिए एक मामूली शुल्क देना पड़ता था, जो अपने पद और कार्यालय को संभालता था और ग्रामीणों का सर्वोत्तम हित सुरक्षित करते हुए अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाता था। वियावान को देश के कानूनों का उल्लंघन करने के लिए जुर्माना और अन्य दंड लगाने और उन्हें वसूलने का अधिकार दिया गया था। यह धन संग्रहण सर्वप्रथम वियावान के पास जाता था, लेकिन ऐसे सभी संग्रहण, निश्चित रूप से, राजा के कोषागार में भी जमा कराए जाने होते थे।
  8. पराइक्कनम: यह धोबियों पर लगाया जाने वाला कर था जो सार्वजनिक तालाबों के पानी का उपयोग करते थे और सार्वजनिक भूमि पर मौजूद पत्थरों को प्रयोग में लाया करते थे।
  9. पुट्टागविलई: टेंटों पर उद्ग्रहित कर अथवा सरकार को देय किराया। जो अधिकारी अपने कार्य के सिलसिले में इधर-उधर घूमते रहते थे और समय-समय पर गाँव की भूमि पर अपने तंबू लगाते थे और जो खानाबदोश एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते थे और तंबू लगाकर उसके नीचे आश्रय लेते थे, उन्हें यह कर देना पड़ता था।
  10. पट्टीगई कनम: यह नौका पर पथकर या नौकाचालकों पर लगाया गया कर था।
  11. तारगु: यह ऐसा शुल्क था जो सभी व्यवसायों में कार्यरत दलालों से लिया जाता था। दलालों को अपने लाभ का एक निश्चित प्रतिशत कर के रूप में चुकाना पड़ता था।
  12. सेक्कु: तेल इकाई लाइसेंस और तेल शुल्क।
  13. तारी: बुनकरों पर लगाया जाने वाला कर या प्रभार।
  14. पदमकली: कताई करने वालों पर लगाया गया पेशेवर कर जिसका भुगतान सूती धागे के रूप में किया जाता था।
  15. वट्टी-नाली: अनाज की बिक्री पर लगाया गया कर।
  16. ओडु-पोक्कू: ऐसा एक कर जो विभिन्न प्रकार के अनाजों के रूप में चुकाया जाता था।
  17. मछुआरों द्वारा राजा को देय बकाए की राशि।
  18. तिरुमुक्कनम: संभवतः एक ऐसा नकद भुगतान जो शाही रिट लाने के लिए एक प्रकार के डाक या परिवहन शुल्क के रूप में वसूल किया जाता था।
  19. पत्तूर सररू: ताड़ी का उत्पादन करने वाले पेड़ों पर कर और ताड़ के पेड़ों पर चूने का लेप करके निकाली गई मीठी ताड़ी पर कर।
  20. उलैयावप्पल्लीवत्तु: यह गाँव से होने वाली आय में से राजा का कानूनी हिस्सा था।
  21. नट्टुवगई: यह मांग के अधिकार वाली एक बड़ी प्रशासनिक इकाई नाडु को दिए जाने वाले गांव के भाग का प्रतिशत था।
  22. ने-विलई: वस्तु के रूप में दिए गए घी के बदले में राजा को दिया जाने वाला शुल्क।
  23. कट्टिक्कनम: तलवार, चाकू या अन्य हथियार का विनिर्माण करने वाले पेशे पर अधिरोपित कर। इस प्रकार इसका अर्थ लोहारों पर लगाया गया कर होगा।
  24. नेदुम्बराई: गांव के ढोल वादकों पर लगाया गया व्यावसायिक कर।
  25. एक्कोरू और सोरुमट्टु: गाँव की कृषि भूमि पर उद्ग्रहित किया जाने वाला कर।
  26. मनरूपडु: यह राशि न्याय के स्थानों से जुर्माना, जब्ती आदि के माध्यम से अर्जित होती थी।

विधि प्रणाली

राजा समस्त न्याय-प्रणाली का प्रधान होता था और जिलों तथा गाँवों के न्यायालयों पर नियंत्रण रखता था। पल्लव न्यायिक अदालतें राजधानी कांची में स्थित थी और उसे अधिकरण कहा जाता था। अन्य नगरों में भी ऐसे ही अधिकरण थे। दासकुमार चरित में, हमें न्याय की अदालत का उल्लेख मिलता है जिसे अधिकरण कहा जाता था। पंचतंत्र में धर्माधिकारी के रूप में बुलाए जाने वाले न्यायाधीशों का उल्लेख है। कासाकुडी पट्टिकाओं में वर्णित अधिकरण और करण दो मदों का उल्लेख करते हैं:

  • करणदंडम
  • अधिकरणदंडम

  • दंड एक अनिर्दिष्ट जुर्माना था, और राजा के आदेश में कहा जाता था कि दंडनम का भुगतान संबंधित दानग्राह्यता को किया जाना है, न कि राजा को। अधिकरणदंडम का तात्पर्य अधिकरण, जिला या शीर्ष अदालत द्वारा अपराधियों पर लगाए गए जुर्माने से है। साथ ही, करणदंडम अधिकरण से कमतर न्यायालय द्वारा लगाया गया जुर्माना होगा। इसका तात्पर्य यह है कि अदालतों की विभिन्न श्रेणियां विद्यमान थीं और निचली अदालत से ऊपरी अदालत तक अपील की एक प्रणाली थी, जिसका निचली अदालत पर कुछ नियंत्रण होता था। एकत्र किए गए जुर्माने का भुगतान दानग्राह्यता को किया जाता था, और इस प्रक्रिया को तीन अधिकारियों द्वारा लागू किया जाता था, जिनके नाम थे - निलाइकलट्टर, अधिकारार, और वायिलकेलपार। मत्तविलासा प्रहसन नामक साहित्यिक कृति में न्यायिक प्रणाली में भ्रष्टाचार का सीधा संदर्भ दिया गया है, जो कांची नगर में न्यायिक अदालत के अधिकारियों की नैतिकता के बारे में परामर्श देता है। धर्मासन का अर्थ था निर्णय आसन, और यह पल्लव शिलालेखों में एक संगठित न्यायिक निकाय या न्यायिक अदालत के रूप में प्रकट होता है जो ग्राम प्रशासन निकाय को नियंत्रित करता था और मंदिर मामलों से संबंधित मामलों का निपटान करता था।

    Share


    Know the Sources +