सिंधु-सरस्वती सभ्यता में लोक प्रशासन

भारतीय इतिहास में एक प्रशासनिक प्रणाली के शुरुआती संकेत पुरातात्विक सामग्री के अवशेषों में पाए जाते हैं। वे अवशेष जो शहरी बसावटों के लिए जाने जाते हैं और जिन्हें निश्चित रूप से सार्वजनिक प्रशासन प्रणाली के नेटवर्क की आवश्यकता रही होगी। प्राचीन समाजों के मानवविज्ञानी अध्ययनों से पता चलता है कि शहरीकरण की कहानी बढ़ती सांस्कृतिक जटिलता, एक व्यापक खाद्य संसाधन के आधार, अधिक तकनीकी परिष्कार, शिल्प उत्पादन का विस्तार, सामाजिक स्तरीकरण और राजनीतिक संगठन के स्तर के उद्भव में से एक है, जिसे एक राज्य के रूप में वर्णित किया जा सकता है।[6] सिंधु सरस्वती सभ्यता का शहरीकरण भी इस संबंध में कोई अपवाद नहीं है। सिंधु-सरस्वती राजनीतिक व्यवस्था की प्रकृति पर बहस दो सवालों के इर्द-गिर्द घूमती रही है: पहला, क्या कोई राज्य अस्तित्व में था या नहीं, और दूसरा, यदि हां, तो यह किस प्रकार का राज्य था?

सिंधु-सरस्वती सभ्यता एक राज्यहीन नीति के रूप में

सिंधु-सरस्वती सभ्यता में पाई जाने वाली सांस्कृतिक एकरूपता के बावजूद, यह कहना मुश्किल है कि इसमें कोई राजनीतिक एकीकरण भी था। यह सबको मालूम है कि मेसोपोटामिया और मिस्र की सभ्यताएं जटिल समाज थीं, उनमें असमानता थी, संपत्ति के बंटवारे में स्तरीकरण से लेकर शक्ति के पदानुक्रम थे। जबकि सिंधु-सरस्वती सभ्यता के शहरों से संकेत मिलता है कि संसाधनों पर और उत्पादन की गतिविधियों पर सामाजिक और राजनीतिक वर्ग का एकाधिकार नहीं था। इसके अलावा, शहरों में कब्रों, महलों और राजवंशीय कला की भी कमी दिखती है जो दूसरी प्रारंभिक जटिल समाजों की विशेषता है।[7] सिंधु सरस्वती सभ्यता में इनकी अनुपस्थिति से यह भी पता चलता है कि असमानता और शक्ति के पदानुक्रम जो दूसरी प्राचीन सभ्यताओं में मौजूद थे, और जहां कुलीनों का एक वर्ग प्रशासन का प्रबंधन करता था, सिंधु-सरस्वती शहरों में वह या तो सीमित था या फिर अनुपस्थित था।

मोहनजोदड़ो के पहले खुदाई करने वाले, सर जॉन मार्शल, जो उस समय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक थे, ने इस अनुभवजन्य पैटर्न को देखा और मोहनजो-दारो और सिंधु सभ्यता (1931) की प्रस्तावना में लिखा:

प्रागैतिहासिक मिस्र या मेसोपोटामिया या फिर पश्चिमी एशिया में कहीं और भी ऐसा कुछ नहीं मिलता जिससे मोहनजोदड़ो के नागरिकों द्वारा निर्मित स्नानागार और आरामदायक घरों की तुलना करने की जा सके। उन देशों में, बहुत सारा पैसा और विचार देवताओं के लिए शानदार मंदिरों के निर्माण, राजाओं के महलों और कब्रों पर खर्च किया गया था, वहीं, बाकी के लोगों को मिट्टी के ऐसे घरों के साथ खुद को संतुष्ट रहना पड़ता था जिसका कोई महत्त्व ही नहीं था। वहीं, सिंधु घाटी में, तस्वीर उलट है, और बेहतरीन संरचनाएं वे हैं जो नागरिकों की सुविधा के लिए बनाई गई हैं। मंदिर, महल और मकबरे अवश्य रहे होंगे, लेकिन या तो उनका अभी भी पता लगाया जाना बाकी है या फिर दूसरी इमारतों की ही तरह वे हैं जिन्हें आसानी से चिह्नित कर पाना बहुत मुश्किल है।[8]

सिंधु-सरस्वती सभ्यता की खोज के एक सदी बाद भी, इस सभ्यता में शासक वर्ग का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल सका है। वह भी तब जब इस सभ्यता और उसकी प्रौद्योगिकियों की जानकारी में समय के साथ इज़ाफ़ा ही हुआ है।[9] लिहाज़ा, इस सभ्यता को लेकर "राज्यहीन" प्रतिमान का उदय हुआ है।[10] पुजारी, राजाओं, दासों, स्थायी सेनाओं या फिर अदालत के अधिकारियों के सम्बंध में किसी भी ठोस सबूत की गैरमौजूदगी सिंधु-सरस्वती सभ्यता को एक राज्य या साम्राज्य की श्रेणी में रखने योग्य नहीं मानती।[11]

ऐसे स्थिति में, एक सवाल उठता है कि सुनियोजित शहरों, आवासीय और सार्वजनिक इमारतों, जल प्रबंधन प्रणाली, मुहरों, अद्वितीय लिपि, वजन और माप में एकरूपता, मानकीकृत शिल्प के उत्पादन, आंतरिक और समुद्री व्यापार, एक व्यापक क्षेत्र में कृषि उत्पादों और मिट्टी के बर्तनों के वितरण का प्रबंधन और नियंत्रण करता कौन था? क्योंकि एक जटिल समाज की ऐसी व्यापक गतिविधियाँ केवल एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था में ही संभव हो सकती हैं। "राज्यहीन" प्रतिमान के पुरातत्वविदों और इतिहासकारों ने तर्क दिया है कि सिंधु-सरस्वती सभ्यता जटिल सरदारों का एक मिश्रण थी जो शहर के प्रशासन की भी देखभाल करते थे।[12] उन्होंने तर्क दिया कि इस सभ्यता में जिस तरह का नियंत्रण परिलक्षित होता है, वह एक विस्तृत ग्राम प्रशासन द्वारा ही किया जा सकता था।[13]

हाल के विद्वानों ने सिंधु-सरस्वती सभ्यता के "राज्यहीन" प्रतिमान को इस धारणा पर धकेल दिया है कि यह शायद दुनिया का सबसे समतावादी प्रारंभिक जटिल समाज था,[14] जिसमें बड़ी मात्रा में गैर-पदानुक्रमित, गैर-जबरदस्ती और गैर-कुलीन सामाजिक और राजनीतिक गठन शामिल थे। यह शहरीकरण और राजनीतिक और सामाजिक असमानता के बीच संबंधों के बारे में लंबे समय से चली आ रही धारणाओं को खारिज करता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि सिंधु-सरस्वती शहरों के सार्वजनिक प्रशासन का जिम्मा निरंकुश कॉर्पोरेट समूहों के पास था जो कम से कम जबरदस्ती या बहिष्करण की राजनीति के साथ उसे देखते थे।[15]

यह भी तर्क दिया गया है कि इन कॉर्पोरेट समूहों ने शहरीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया, जिसके लिए कई सामान्यीकृत "सार्वजनिक वस्तुओं" के निर्माण की आवश्यकता हुई। मिसाल के तौर पर, इन समूहों की सामूहिक कार्रवाई द्वारा बनाई जाने वाली सड़कें और जल निकासी की प्रणालियाँ, सार्वजनिक पहुंच वाली बड़ी और छोटी इमारतें, सूचनात्मक और नियामक प्रौद्योगिकियां जैसे वजन और मुहर। [16]

सिंधु-सरस्वती सभ्यता; एक राज्य व्यवस्था के तौर पर: केंद्रीकृत या विकेन्द्रीकृत

एक और परिकल्पना के मुताबिक सिंधु-सरस्वती राजनीति को "राज्य-स्तरीय" प्रतिमान कहा जाता है। जो बताता है कि इस सभ्यता में अत्यधिक केंद्रीकृत साम्राज्य था। जिसका शासन हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की जुड़वां राजधानियों के निरंकुश पुजारी और राजाओं के जिम्मे था।[17] इस दृष्टिकोण को कई और विशेषताओं का समर्थन मिला जैसे कि भौतिक विशेषताओं में बड़े स्तर पर एकरूपता, एक मानक लिपि का उपयोग, मानकीकृत वजन और माप और कुशल सार्वजनिक प्रशासन प्रणाली। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सार्वजनिक इमारतें इस विचार से मेल खाती हैं कि उनके शासकों के पास शहरों के प्रशासन समेत हर चीज पर उच्च स्तर का नियंत्रण था। बस्तियों के बीच प्रत्यक्ष तौर पर आंतरिक संघर्ष की अनुपस्थिति का अर्थ था कि वे एक ही सत्ता द्वारा शासित थे।[18] वास्तव में, राज्य-स्तरीय प्रतिमान के अनुयायियों के मुताबिक सिंधु सभ्यता को एक राज्य के रूप में वर्गीकृत करने के लिए अकेले शिल्प विशेषज्ञता ही पर्याप्त थी।[19]

वजन और माप में एकरूपता, ईंटों के आकार और सड़क का खांका, इन सब पर ग़ौर करते हुए अगर एक अत्यधिक केंद्रीकृत "राज्य-स्तरीय" प्रतिमान में भरोसा करें, तो सिंधु-सरस्वती सभ्यता की प्रशासनिक बनावट बहुत प्रभावी होनी चाहिए। सार्वजनिक इमारतों के उचित प्रबंधन और सुनियोजित खांका से यह प्रमाणित किया जा सकता है कि शहरों को कुशलतापूर्वक शासित किया गया था। घरों की योजना में कुछ मामूली बदलाव के साथ नए घरों को लगभग उसी जगह पर बनाया गया था जहां पुराने घर थे। ऐसा लगता है कि पूरी सभ्यता की शासन व्यवस्था में निरंतरता थी।[20]

"राज्य-स्तरीय" प्रतिमान के भीतर, एक विकेन्द्रीकृत राज्य व्यवस्था के भी तर्क प्रस्तावित किए गए हैं. इस दृष्टिकोण से संबंधित इतिहासकारों ने सभ्यता की स्पष्ट एकरूपता का श्रेय एक शक्तिशाली केंद्रीय सरकार को देने के बजाय, सुझाव दिया है कि यह आंतरिक व्यापार की उन्नत व्यवस्था का परिणाम हो सकता है जिसे सभ्यता ने बढ़ावा दिया होगा। स्मारकनुमा शाही मकबरों, महलों और मंदिरों की अनुपस्थिति, साथ ही प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया में देखे गए स्पष्ट सामाजिक स्तरीकरण की कमी से यह पता चलता है कि सिंधु-सरस्वती सभ्यता न तो साम्राज्य थी और न ही एक केंद्रीकृत राज्य थी। हम यह भी देखते हैं कि विभिन्न प्रकार की कलाकृतियों को कुलीन घरों या संरचनाओं में एकत्रित करने के बजाय सिंधु-सरस्वती सभ्यता के व्यावसायिक स्तरों पर वितरित किया जाता है। कीमती धातुओं और अर्धकीमती पत्थरों से बने आभूषण, मुहर और आलेख सभी छोटे शहर में बनते हैं। यह एक एकीकृत साम्राज्य के विचार के विपरीत है क्योंकि इसका अर्थ यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी केंद्रों, दोनों में लोगों को भौतिक वस्तुओं और प्रतिष्ठा के प्रतीकों की समान पहुंच है।[21]

कुछ विद्वान सिंधु-सरस्वती सभ्यता को एक प्रारंभिक राज्य मानते हैं जिसकी पहचान संप्रभु है या यूँ कहें कि संप्रभु की जो विशेषता है, जो एक पौराणिक चरित्र की निकटता से जुड़ा हुआ है और उदार रूप में देखा जाता है; उससे भी सिंधु-सरस्वती सभ्यता को जोड़कर देखा जाता है। इस सभ्यता में एक सैन्य घटक की कमी है जो अधिक परिपक्व राज्यों की आवश्यक विशेषता है। साथ ही, एक शिथिल रूप से विकसित आर्थिक स्तरीकरण भी नज़र आता है।[22] कुछ अटकलों पर अगर ग़ौर करें तो सिंधु-सरस्वती राज्य में शहरी अभिजात वर्ग के कई स्तर शामिल थे, जिनमें से प्रत्येक के प्रभाव और शक्ति के अपने क्षेत्र थे, जिनमें व्यापारी, अनुष्ठान विशेषज्ञ और ज़मींदार शामिल थे।[23] ये कयासबाजी इस सभ्यता की विकेंद्रीकृत राजनीति का भी समर्थन करती हैं. इसके अलावा, विकेन्द्रीकरण की परिकल्पना सिंधु-सरस्वती सभ्यता की प्रमुख बस्तियों के आसपास केंद्रित 'कई राज्यों' के सिद्धांत को स्थापित करने के सराहनीय प्रयास भी करती है।[24]

प्रमुख शहरों में बड़ी संख्या में गेंडा वाले मुहर का होना, इससे ऐसा लगता है कि यह सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग का प्रतीक रहा होगा या फिर अभिजात वर्ग या व्यापारियों का प्रतिनिधित्व करता होगा जिनकी प्रशासनिक हलकों में महत्वपूर्ण भूमिका थी।[25] कई विद्वानों का मानना है कि मुहरों और गोलियों का एक संभावित काम कुलियों को आवंटित राशन का रिकॉर्ड रखना था। संपत्ति के स्वामित्व को इंगित करने के बजाय, इन मुहरों का इस्तेमाल आर्थिक लेनदेन के लिए किया गया होगा। मुहरों से, हमें यह भी जानकारी मिलती है कि कारीगरों और शिल्पकारों को अवसर प्रदान किए जाते थे। इससे पता चलता है कि आर्थिक और सामाजिक प्रक्रियाओं के बीच एक घनिष्ठ एकीकरण था और यह एक सफल प्रशासनिक तंत्र की निशानी है। यह भी देखा गया है कि कोट डिजी संस्कृति के प्रसार के साथ एक नए प्रकार की स्टाम्प सील का उपयोग बढ़ रहा था जिसे एक प्रशासनिक साधन के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता था।[26]

सिंधु-सरस्वती मुहरों का एक संग्रह। अब तक 3,000 से अधिक की खोज की गई है, और ऐसा लगता है इनका कई चीज़ों में इस्तेमाल होता था; शिपमेंट और स्वामित्व की वाणिज्यिक ट्रैकिंग से लेकर धार्मिक आह्वान और संरक्षण तक। जैसा कि पुरातत्वविदों ने मेसोपोटामिया के खंडहरों में सिंधु मुहर की खोज की है, प्रशासनिक साधन के रूप में भी इन मुहरों के उपयोग से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।

 

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