राजपद

कुषाण साम्राज्य पर राजतंत्र का शासन था। राजसत्ता वंशानुगत होती थी। कुजुला कडफिसेस का उत्तराधिकारी उसका पुत्र विमा कडफिसेस था। हम कम-से-कम यह मान सकते हैं कि या तो सबसे ज्येष्ठ पुत्र या पुत्रों में से कोई एक या शाही परिवार का जीवित सबसे वरिष्ठ सदस्य ही सामान्यत: कुषाण सिंहासन के लिए मृत सम्राट का उत्तराधिकारी होता था। किसी सम्राट के सह-शासक द्वारा सिंहासन पर बैठने के साक्ष्य, जिसे पश्चातवर्ती सम्राट द्वारा नियुक्त किया गया था या जिसे कम-से-कम उसके द्वारा स्वीकार किया गया था, यह बताता है कि सत्तारूढ़ सम्राट के पास अपने उत्तराधिकारी को चुनने का अधिकार मौजूद था।[5]

प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी कभी-कभी शाही प्रशासन से संबंधित होता था। उसने समस्त राजसी उपाधियों का प्रयोग किया। परन्तु उसने संभवतः संयुक्त शासन काल के दौरान सिक्के नहीं चलाए। इस प्रकार, वंशानुगत दोहरा शासन-व्यवस्था, जिसमें साम्राज्य का नेतृत्व कभी-कभी दो राजाओं (एक वरिष्ठ और एक कनिष्ठ) के पास होता था, कुषाण शासन की एक खास विशेषता थी।[6]

सिक्कों की किंवदंतियों और उपाधियों का उल्लेख करने वाले अभिलेखों के अध्ययन से कुषाण सम्राट की स्थिति का अंदाजा प्राप्त हो जाता है। समस्त राजाओं के लिए महाराजा राजाधिराज जैसी सामान्य उपाधियों के अलावा, विमा कडफिसेस को सर्वलोकैश्वर और महिश्वर भी कहा जाता है। प्रथम शब्द का अर्थ है 'समस्त संसारों का स्वामी', जबकि दूसरे का अर्थ है 'सर्वशक्तिमान ईश्वर' और इससे यह भी इंगित होता है कि वह शिव का भक्त था, और यह बात सत्य भी है। संस्कृत उपाधियों के अलावा, यूनानी उपाधि बेसिलेटस बेसिलून और ईरानी उपाधि शाओनानो शाओ जो पश्चातवर्ती शहंशाह से मेल खाती हैं, यह सुझाती है कि कुषाण सम्राट अपनी समस्त प्रजा - ग्रीक, इंडो-ग्रीक, ईरानी और भारतीयों को अपनी स्थिति दर्शाने के प्रति उत्सुक थे। सम्राट कनिष्क द्वारा कैसर उपाधि का प्रयोग, जैसा कि हमें आरा शिलालेख में प्राप्त होता है, इस शासक के प्रयास का संकेत हो सकता है, जो स्पष्ट रूप से रोमन सम्राट के अधिकार को चुनौती नहीं देता है, बल्कि संभवतः स्वयं को उसके साथ समानता के स्तर पर रखता प्रतीत होता है। दूसरे शब्दों में, कुषाण राजा अपने नागरिकों के साथ-साथ उनके साम्राज्य से गुजरने वाले विदेशी व्यापारियों की दृष्टि में अपनी स्थिति का दावा अन्य राजाओं की स्थिति के समकक्ष रखने के लिए उत्सुक प्रतीत होते थे। सिक्कों पर किंवदंतियाँ और अभिलेखों में दी गई उपाधियाँ बिना कोई प्रशासनिक विवरण प्रदान करते हुए सम्राट की स्थिति की ओर इशारा करती हैं।

हालाँकि, हम कुषाण सम्राटों द्वारा शाही सत्ता का वास्तविक प्रदर्शन करने के स्थान पर सरकार के विकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति का संकेत देने वाली भव्य उपाधियाँ अपनाने की संभावना से इंकार नहीं कर सकते हैं। चूंकि कुषाणों के समकालीन छोटे शासकों, विशेष रूप से पश्चिमी भारत के शकों ने भी स्वयं को राजाधिराज और महाराजा के रूप में विभूषित किया था, इसलिए, कुषाण राजाओं द्वारा धारण की गईं महाराजा राजाधिराज और देवपुत्र जैसी उच्च उपाधियों ने छोटे राजाओं और प्रमुखों के अस्तित्व की ओर भी ध्यान आकर्षित किया होगा जो संप्रभु सत्ता के जागीरदारों से संबंधित थे और उस समय मौजूद थे। यही वजह थी कि किसी राजा उन अन्य राजाओं की तुलना में महाराजा या महान राजा कहा जाता था, जिन्हें केवल ‘राजा’ ही बुलाया जाता था और जो उस महान पद का आनंद नहीं उठा सकते थे। इसी प्रकार, कुषाण सम्राट को अपने राज्य में अन्य अधीनस्थ राजाओं की तुलना में महाराजा राजाधिराज कहा जाता था जिसका अर्थ था राजाओं का सर्वोच्च राजा। इस प्रकार ऐसी उच्च उपाधियाँ एक ऐसे सामंती संगठन का संकेत देती हैं जिसमें सहायक राज्य या प्रमुख उनके शामिल होते थे।[7]

अनेक शिलालेखों में, कुषाण शासक को देवपुत्र भी कहा गया है जो राजा की दैवीय उत्पत्ति का संकेत देता है। इस उपाधि को अपनाते समय वे संभवतः सम्राट को टी’एन-त्ज़ु कहने की चीनी परंपरा से प्रभावित थे जिसका अर्थ है "स्वर्ग का पुत्र"। इस बात पर ध्यान देना दिलचस्प है कि कामरा (पंजाब, पाकिस्तान) में पाए गए एक शिलालेख में कुषाण शासक वाजेश्का को न केवल "ईश्वर के पुत्र" के रूप में वर्णित किया गया है, बल्कि देवतननुइया भी कहा गया है जिसका आशय है मनुष्य के रूप में रहने वाला भगवान। अनेक सिक्कों पर विमा कडफिसेस के धड़ को बादलों से उठते हुए या उसके सिर को फ्रेमों के भीतर समाहित होते हुए दर्शाया गया है, और साथ ही कुषाण सिक्कों पर राजा के सिर के पीछे प्रभामंडल भी चित्रित किया गया है जो कुषाण राजत्व के अलौकिक चरित्र को इंगित करने का प्रयास प्रतीत होता है। मथुरा के एक मंदिर और स्वात क्षेत्र के छोटे अभयारण्यों में पाई गई कुषाण शाही प्रतिमाएं यह सिद्ध करती हैं कि कुषाण राजाओं की वास्तव में देवताओं के रूप में पूजा की जाती थी। मैट स्थित मंदिर, जैसा कि वहां पाई गई पुरातात्विक सामग्रियों से संकेत मिलता है, विमा कडफिसेस के शासनकाल के दौरान बनाया गया था और वहां उनकी छवि पूजा की मुख्य वस्तु के रूप में स्थापित की गई थी। इस मंदिर का जीर्णोद्धार कनिष्क के पुत्र हुविष्क के शासनकाल में किया गया था, और इसलिए उस राजा के काल में कम-से-कम कुछ समय तक उसकी पूजा की जाती रही थी। इन आंकड़ों से पता चलता है कि कुषाण सम्राट को उनके जीवनकाल के दौरान और मृत्यु के बाद भी मंदिर में देवता के रूप में पूजा जाता था।[8]

मंत्रिमंडल

ये तथ्य कि प्रारंभिक कुषाण सम्राटों ने सफलतापूर्वक एक विशाल राजवंश का निर्माण किया और उनमें से अधिकांश ने एक विशाल वैविध्य क्षेत्र पर शासन किया, यह दर्शाते हैं कि उनके पास सफल राजाओं के लिए आवश्यक योग्यताएँ विद्यमान थीं। उनकी मंत्रिपरिषद विश्व के सभी प्राचीन राजतंत्रों का एक अभिन्न अंग थी। यूनानी, रोमन, इंडो-ग्रीक, पार्थियन, चीनी, मौर्य और सातवाहन जैसे सभी प्राचीन साम्राज्यों में देश के प्रशासन में राजा की सहायता के लिए सलाहकार निकाय और सीनेट मौजूद थे। हालाँकि कुषाण अभिलेखों में किसी सलाहकार निकाय का कोई संदर्भ नहीं है, लेकिन समकालीन बौद्ध साहित्य में राजा की सहायता करने वाली एक परिषद का उल्लेख है जिसके सदस्यों को परिषद्यम के नाम से जाना जाता था। एक अन्य शब्द तुलाका का प्रयोग पार्षद के लिए किया जाता है, जबकि एक अन्य कृति में राजा के पार्षद राजमात्य को राजमहात्र से अलग वर्णित किया गया है।[9]

कुषाण काल के अभिलेखों में राजा के पार्षद के किसी भी संदर्भ का उल्लेख न होने का अर्थ यह नहीं समझा जाना चाहिए कि समग्र कुषाण प्रशासन में मंत्री परिषद का अस्तित्व नहीं था। कुषाण शासकों के भारतीयकरण से बहुत पहले, किसी विशिष्ट प्रकार की सलाहकार संस्था कुषाण राजनीति का भाग होनी ही चाहिए थी जिस प्रकार यह सभी प्रमुख समकालीन साम्राज्यों में विद्यमान थी। इसके अलावा, यह विश्वास करना असंभव है कि इसके महान शासक कनिष्क, जिनका जन्म भारत में हुआ था और जिनकी दोनों शाही राजधानियाँ पुरुषपुर और मथुरा भारत की मुख्य भूमि में स्थित थीं, के पास कोई सलाहकार संस्था नहीं थी। उनके पिता विमा कडफिसेस शैव थे और वे स्वयं बौद्ध बन गए थे। इस प्रकार, पिता और पुत्र दोनों एक ऐसे संप्रदाय का अनुसरण करते हैं जिसमें राजनीति पर प्रचुर साहित्य विद्यमान है, जिसमें मंत्रिपरिषद के महत्व पर इतना बल प्रदान किया गया है, जिससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ऐसे विशाल साम्राज्य के प्रशासन में शासक की सहायता करने के लिए कुषाण के यहां किसी न किसी प्रकार की सलाहकार संस्था अवश्य ही होनी चाहिए। तथापि, उन्होंने संभवतः कुषाण राजाओं के अधिकार पर वास्तविक जाँच के रूप में कार्य नहीं किया। लेकिन चूँकि शासकों को स्पष्ट रूप से मंत्रियों और उच्च अधिकारियों की सहायता से काम करना पड़ता था, इसलिए उन्हें उन पर निर्भर रहना पड़ता था।[10] कनिष्क के पास मो-चा-लो नाम का एक प्रधानमंत्री था, जिसकी पुष्टि एक चीनी स्रोत के हवाले से दिए गए बयान से हुई है।

यहां इस बात को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि कनिष्क के परिचितों के आंतरिक घेरे में कभी-कभी प्रसिद्ध हस्तियों को भी शामिल किया जाता था। महान बौद्ध विद्वान अश्वघोष और प्रसिद्ध चिकित्सक चरक को त्सा पाओ-त्सांग चिंग में कनिष्क के घनिष्ठ मित्रों के रूप में वर्णित किया गया था।[11]

प्रांतीय शासक : छत्रप और महाछत्रप

विशाल कुषाण साम्राज्य, जो मध्य एशिया से बिहार तक और कश्मीर से सिंध तक फैला हुआ था तथा जिसमें विषम सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि रखने वाले विभिन्न राष्ट्रीयताओं और धर्मों के लोग शामिल थे, संभवतः तीन अलग-अलग स्तरों - केंद्रीय, प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर एक सुसंगठित प्रशासनिक प्रणाली के माध्यम से प्रशासित होता था। ऐसा प्रतीत होता है कि कुषाणों ने साम्राज्य की विभिन्न इकाइयों के लिए क्षत्रपों और महाक्षत्रपों की नियुक्ति करके इंडो-ग्रीक और पार्थियन (शक) के पूर्व में विद्यमान प्रतिमान का अनुसरण किया था।[12] सरकार की क्षत्राप प्रणाली के अंतर्गत, साम्राज्य को प्रांतों में विभाजित किया गया था जिसमें प्रत्येक प्रांत सैन्य गवर्नर महाक्षत्राप (महान क्षत्राप) के अधीन था।[13] निचले स्तर के प्रशासकों को क्षत्रप कहा जाता था। साम्राज्य को शहर या क्षत्र कहा जाता था। शाहपुर l के शिलालेख नक्श-ए-रुस्तम में इसे क्वाश्नष्ट (या कुषाणशहर) और कौसेनन एथन के रूप में संदर्भित किया गया है। लेकिन, हमें कुषाण साम्राज्य में क्षत्रपों की संख्या का सटीक अंदाज़ा नहीं मिलता है। यह सुझाव दिया गया है कि साम्राज्य पाँच या सात क्षत्रपों में विभाजित था।[14]

हालांकि, क्षत्रपों और महाक्षत्रपों ने अपने लिए राजसी उपाधियाँ अर्जित कर ली थीं, फिर भी उन्होंने कुषाण राजाओं की अधीनता स्वीकार कर ली। कुछ क्षत्रपों द्वारा उच्च पदवी, राजन महाक्षत्रप को स्वीकार किए जाने की बात अधिपति कुषाण राजा द्वारा उन्हें यह उपाधियां प्रदान किए जाने की ओर इशारा करती है। उज्जैन के चष्टन जैसे कुछ क्षत्रपों को काफी स्वायत्तता प्राप्त थी और उन्हें मुख्य रूप से चांदी के सिक्के जारी करने की अनुमति थी। उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि क्षत्रप और महाक्षत्रप के पदों का उपभोग एक ही परिवार के सदस्य किया करते थे। कुषाण साम्राज्य के सीमावर्ती क्षेत्र में स्थित प्रांत के गवर्नर को करालरांगो कहा जाता था।[15]

पुरालेखीय साक्ष्य यह स्पष्ट करते हैं कि कुषाण राजाओं ने अपने क्षेत्रों के बाहरी भाग पर कोई प्रत्यक्ष प्रशासनिक नियंत्रण नहीं रखा था। कनिष्क I के सारनाथ बौद्ध छवि शिलालेख में कनिष्क के साम्राज्य के सबसे पूर्वी प्रांत - वाराणसी पर शासन करने वाले दो क्षत्रपों - वनस्परा और खरपल्लाना के शासन का उल्लेख है। दो क्षत्रपों द्वारा संचालित वाराणसी क्षेत्र का प्रशासन इंगित करता है कि कुषाणों ने एक प्रांत में दोहरी शासन व्यवस्था की अनोखी प्रथा शुरू की थी। संभवत: इसका आशय यह था कि एक क्षत्रप दूसरे की शक्ति पर अंकुश लगाने का काम करेगा। लेकिन वनस्परा और खरपल्लन अधिक समय तक एक ही स्तर पर नहीं रह सके, क्योंकि एक अन्य शिलालेख में वनस्परा का उल्लेख क्षत्रप के रूप में और दूसरे का महाक्षत्रप के रूप में किया गया है।[16]

प्रशासनिक अधिकारी

सम्राट और उसके उत्तराधिकारी को प्रशासन का संचालन करने में अन्य लोगों द्वारा सहायता प्रदान की जाती थी। साम्राज्य के उच्च नागरिक, न्यायिक और सैन्य अधिकारियों के पदनाम जैसे महादंडनायक और दंडनायक कुषाण प्रशासन की रीढ़ का निर्माण करते हैं। ये दोनों शब्द पूरे भारत में अनेक शिलालेखों में पाए जाते हैं जो कुषाण साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था में उनके विद्यमान होने का उल्लेख करते हैं। जैसे दंड का अर्थ अन्य बातों के साथ-साथ "सजा", "सुधारदंड", और "सेना" भी है, दंडनायक या दंड के नेता का अर्थ न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट, मुख्य पुलिस अधिकारी और सेना जनरल भी है। दंडनायक का उपयोग अलग-अलग समय पर या अवसरों की मांग के अनुसार न्यायिक, नागरिक और सैन्य कर्तव्यों को निभाने के लिए किया जाता था।[17] हालांकि वह सैन्य कार्य भी निष्पादित कर सकता था, परंतु उसे सेनानी अथवा वास्तविक सेनापति मानना उचित नहीं होगा। दण्डनायक को दण्डपादिका से भी अलग किया गया है जो संभवतः बेड़ियाँ (पाश) धारण करने वाले व्यक्ति को प्रतिबिंबित करता है।[18]

इसके अलावा, हम इससे भी उच्च उपाधि महाप्रचंड दंडनायदक भी देखते हैं और उसी अधिकारी को अन्य उपाधियाँ भी प्रदान की जाती थी जिनसे हमें उसके अन्य कार्यों के बारे में सूचना मिलाती है। कुषाण राजशाही में महादंडनायक का अस्तित्व साम्राज्य में समान प्रकार के अधिकारियों की श्रेणीबद्ध पदानुक्रम प्रणाली के प्रचलन की ओर भी इशारा करता है। विशिष्ट पदबंध अधिक श्रेष्ठ स्थिति का संकेत देता है। रोमन और हान साम्राज्यों की ही भांति, नौकरशाही में प्रवेश संभवतः काफी हद तक शाही नियुक्ति पर निर्भर करता था।[19] अन्य अधिकारी जिनका उल्लेख किया जाना प्रासंगिक है, नवकर्मिगा हैं जो इमारतों के अधीक्षक थे, और करावहेना कनिष्क द्वारा नियुक्त अधिकारियों का एक विशेष वर्ग था जिन्हें उसके समूचे साम्राज्य में बौद्ध मठों के निर्माण का उत्तरदायित्व सौंपा गया था। पश्चातवर्ती स्थिति का सृजन काफी हद तक कनिष्क की बौद्ध धर्म में गहन रुचि के कारण हुआ क्योंकि उन्होंने ही बुद्ध की मूर्तियों के निर्माण की परंपरा आरंभ की थी।[20]

कुषाण राजा के शासनकाल में कनिष्क का पुत्र हुविष्क, जो एक महादंडनायक था, मंदिर के संरक्षक के कर्तव्य का निर्वहन करता प्रतीत होता है और उसे बकनपति के नाम से जाना जाता था। जबकि कनिष्क के काल के एक अभिलेख में वहारी के संदर्भ को अधिकारियों के एक वर्ग की ओर संकेत माना जा सकता है जिन्हें व्यावहारिक कहा जाता था। मौर्य काल में व्यवहारिक या नगरव्यवहारिक का पद धारण करने वाले अधिकारी मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य करते थे। कुषाण काल के व्यवहारिकों द्वारा भी इसी तरह के राजसी कर्तव्यों का निर्वहन किया जाता रहा होगा।.[21]

नगर प्रशासन

कुषाण साम्राज्य में नगर प्रशासन के बारे में जानकारी बहुत कम है, लेकिन चूंकि कुषाण क्षेत्र में एक समय में विभिन्न राजवंशों द्वारा शासित राष्ट्रीयताओं की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल थी, इसलिए यह काफी हद तक स्वाभाविक है कि कुषाण ने भारत-यूनानियों, शकों, चीनियों और मौर्यों की नगर प्रशासनिक प्रणाली को ही अपनाया होगा। कुषाणों द्वारा उत्तरी भारत की विजय के समय, भारतीय नगरों का प्रशासन एक प्रशासक द्वारा किया जाता था। उनके अधीनस्थ तीन मुख्य मजिस्ट्रेट हुआ करते थे। गोपा के नाम से जाना जाने वाला जिला निरीक्षक दस, बीस या चालीस परिवारों का प्रभारी होता था। उससे अपेक्षा की गई थी कि उसे अपने जिले में रहने वाले सभी पुरुषों और महिलाओं की जाति, नाम और व्यवसाय के बारे में पता हो और उनके बारे में यहां तक जानकारी हो कि उन्होंने कितना कमाया और कितना खर्च किया। स्थानिका नामक एक जिला निरीक्षक भी होता था जो शहर के चार वर्गों में से प्रत्येक का प्रभारी हुआ करता था। इनमें से प्रत्येक निरीक्षक किलाबंद शहर के एक-चौथाई हिस्से के मामलों का प्रबंधन करता था।[22] जहां तक ईरानी क्षेत्र के नगरों का सवाल है, उनके पास जिला निरीक्षक थे और इस बात के कुछ साक्ष्य भी हैं कि जिले दीवारों से घिरे हुए थे। भारत में, नगरपालिका अधिकारी कारीगरों और व्यापारियों की गतिविधियों को नियंत्रित करते थे। नगर परिषदों के संदर्भ विद्यमान हैं और कुछ नगरों में नगर मुहर होती थी। मेगस्थनीज के अनुसार, शहरी जीवन का प्रबंधन छह समितियों द्वारा किया जाता था, जिनमें से प्रत्येक में पाँच सदस्य होते थे और उनका अपना-अपना विशिष्ट कार्य होता था।[23]

आधुनिक उज़्बेकिस्तान में कारा टेपे शिलालेखों से पता चलता है कि जहां एक ओर बौद्ध धर्म व्यापक रूप से फैला हुआ था, वहीं इसके लिए बौद्ध भिक्षुओं और बौद्ध धार्मिक समुदाय-संघ के अधिकारियों ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कुषाणों के पश्चिमी क्षेत्रों में संख्यात्मक रूप से विशाल पारसी पुरोहित वर्ग द्वारा निश्चित रूप से यदि अधिक महत्वपूर्ण नहीं, तो एक समान भूमिका का निर्वहन किया गया था। अनेक शहरों की आबादी में कई विदेशी भी शामिल थे। इस काल में मध्य एशिया के विभिन्न भागों से आए लोग भारतीय नगरों में रहते थे।[24] कुषाण साम्राज्य के महानगरीय शहर हस्तशिल्प और आर्थिक जीवन का केंद्र बन गए, इसलिए उनके प्रशासन का एक बड़ा भाग संघ द्वारा प्रशासित किया जाता था। इंडो-ग्रीक शासक मिनांडर से संबंधित मिलिंद पन्हा नामक बौद्ध ग्रंथ में लोहारों, चांदीकारों, सुनारों, ताम्रकारों, सीसा-श्रमिकों, टिनकारों, लौह-श्रमिकों, धातुकर्म शिल्पकारों और यहां तक ​​कि स्वर्ण आकलकों का भी उल्लेख है। कुषाण काल की अनेक मुहरें निगम का उल्लेख करती हैं और एक शिलालेख में संघ को श्रेणी कहा गया है। संघ निश्चित रूप से अपने सदस्यों की देखभाल करने और संभवतः नगर मामलों का प्रबंधन करने में सक्षम थे।[25]

ग्राम प्रशासन

सबसे निचली प्रादेशिक इकाई निस्संदेह ग्रामिका के अंतर्गत गाँव थी, जो कुषाण की प्रशासन प्रणाली का एक नियमित हिस्सा प्रतीत होता है। इस ग्राम संस्था को कुषाणों ने अपने पूर्ववर्तियों से हासिल लिया था और उनके द्वारा बनाए रखा गया था, क्योंकि ग्रामिका का कार्यालय मगध के बिम्बिसार के समय के समान ही प्राचीन था। ग्रामिका शब्द दामोदरपुर ताम्रपत्र शिलालेख में भी पाया जाता है और इसका अर्थ गाँव के मुखिया के रूप में लगाया जाता है। पश्चातवर्ती कुषाण राजा वासुदेव के समय के मथुरा शिलालेख में एक ग्रामिका का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है और उसी स्थान से प्राप्त एक अन्य जैन पंथ छवि अभिलेख, जो दो पीढ़ियों को संदर्भित करता है जिन्हें स्थानीय ग्रामिका माना जा सकता है, कुषाण काल से संबंधित है।[26]

ग्रामिका शब्द वैदिक साहित्य के ग्रामामी और पश्चातवर्ती अभिलेखों में पाए जाने वाले ग्रामकुट्टक का पर्याय है जहां ग्रामकुट्टक को ग्रामपति के साथ विभेदित किया गया है, जो संभवतः गाँव का जमींदार हुआ करता था। कुषाण काल में स्थानीय मुखिया के रूप में एक अन्य ग्राम अधिकारी पद्रपाल भी देखा गया है। अभिलेखों से यह पता चलता है, वे वंशानुगत हुआ करते थे। कुषाण अभिलेखों में उनके कार्यों और पारिश्रमिक के संबंध में कोई जानकारी निहित नहीं है। लेकिन जैसे ही विमा कडफिसेस से लेकर कुषाण राजा भारतीय भूमि में स्थापित हो गए और उन्होंने भारतीय राजनीतिविज्ञान में वर्णित सामान्य प्रशासनिक मशीनरी को अपना लिया, यह संभावना है कि ग्राम प्रधान ने अपने पूर्ववर्तियों के कार्यों का निर्वहन किया।[27]

राजस्व

कुषाण सम्राट प्रशासन संचालित करने के लिए आवश्यक संसाधनों से परिचित थे। हमें साम्राज्य के वित्तीय और राजकोषीय स्रोतों का कुछ अंदाज़ा है। सैन्य उपक्रमों के दौरान एकत्र किया गया धन कुषाणों के लिए धन के प्रमुख स्रोतों में से एक रहा होगा। फू-फा-त्सांग-यिन-युआन-चुआन (धर्म राजकोष की जानकारी संप्रेषित करने का स्रोत) यह बताता है कि किस प्रकार कनिष्क ने पाटलिपुत्र राजा पर हमला करके उसकी सबसे मूल्यवान संपत्तियों पर कब्जा कर लिया था। कुषाण सम्राट को सामंती राष्ट्रों (क्षत्रपों) द्वारा नियमित रूप से दिए जाने वाले नज़राने से भी लाभ हुआ। होउ हंसु (पश्चातवर्ती हान की पुस्तक) में कहा गया है कि शेन-टू, अर्थात निचले सिंधु क्षेत्र पर विजय प्राप्त करने के बाद, कुषाण "बेहद अमीर और शक्तिशाली" बन गए थे। चूंकि शेन-टू के रोमन साम्राज्य के प्राच्य अधिकृत क्षेत्रों के साथ नियमित वाणिज्यिक संबंध थे, अत: कुषाणों के इन अधिकृत क्ष्रेतों ने वाणिज्य की वस्तुओं पर कर लगाकर उनके लिए राजस्व का एक बड़ा स्रोत सुरक्षित कर दिया था।[28]

यह तथ्य कि कुषाण भारत में बड़ी संख्या में सोने के सिक्के ढालने वाले सबसे पहले शासक थे, हमें यह अनुमान लगाने के लिए विवश करता है कि करों का भुगतान नकद रूप में किया जाता था। लेकिन कुषाण काल में प्रचलित करों के भुगतान की कुछ और पद्धतियां भी होने के अनेक संकेत मिलते हैं। उन्होंने अपने साम्राज्य की सीमाओं पर एक सीमाशुल्क गृह प्रणाली स्थापित की थी। देश में प्रवेश करने वाली शुल्कयोग्य सभी वस्तुओं को सीमाशुल्क अधिकारी द्वारा प्रवेश के समय एक पुस्तक में दर्ज किया जाता था। इससे कुषाणों को राजस्व में भी योगदान प्राप्त हुआ। पूर्वी अफगानिस्तान में बेग्राम (प्राचीन कपिसा और भारतीय प्रांत का एक हिस्सा) में की गई खुदाई से कुषाणों का एक भंडारगृह भी प्रकाश में आया है जिसमें विभिन्न देशों का माल संग्रहित किया गया है। यह तर्क दिया गया है कि यह भंडारगृह ओरिएंट और ऑक्सिडेंट के बीच व्यापार में भाग लेने वाले व्यापारियों से एकत्रित बकाया राशि की प्राप्ति के लिए एक सीमाशुल्क डिपो के रूप में कार्य करता था।[29] संबंधित साक्ष्यों से पता चलता है कि कुषाण अधिकारी वस्तु के रूप में भी कर वसूल करते थे। ऐसे अनुमानों को प्रजा पर लगाए गए विभिन्न प्रकार के करों के माध्यम से शाही बकाया राशि का संग्रहण किए जाने के बारे में जूनागढ़ शिलालेख के साक्ष्य से समर्थन मिलता है।[30]

149-50 ई. के जूनागढ़ अभिलेख में शक शासक रुद्रदीमन का उल्लेख किया गया है, जिनके परिवार ने पहले कुषाणों की सेवा की थी, जिसमें यह कहा गया है कि उनका खजाना सोने, चांदी, हीरे, बेशकीमती रत्नों और अन्य कीमती वस्तुओं के संग्रह से भरा हुआ था, जिन्हें करों के उचित संग्रह के माध्यम से जुटाया गया था। जूनागढ़ शिलालेख में तीन करों का उल्लेख किया गया है, (1) बाली - प्रजा से जुटाया गया एक प्रकार का अनिवार्य नजराना या योगदान, (2) शुल्क - नौका शुल्क, पथकर, माल पर शुल्क, आदि और (3) भाग - शाही हिस्सा, सामान्यत: कृषि उत्पादों सहित उपज का छठा हिस्सा। उसी शिलालेख से पता चलता है कि रुद्रादिमन ने कर टैक्स की सहायता से "कस्बों और देश के नागरिकों पर अत्याचार किए बिना" एक बांध का पुनर्निर्माण किया, जो एक प्रकार का आवधिक कर विष्टि अर्थात जबरन श्रम था, जिसके साथ प्रणय भी वसूला गया था, जो गैर-आवर्ती प्रकृति के आपातकालीन कर को दर्शाता है। चूंकि रुद्रादिमन के परिवार के सदस्यों ने जूनागढ़ शिलालेख में उल्लेख की गई तारीख से बहुत पहले की अवधि के लिए कुषाणों की सेवा की थी, और चूंकि उनका अधिकांश क्षेत्र पहले कुषाण साम्राज्य में रहा होगा, इसलिए इस शिलालेख में उल्लिखित कर कुषाणों के भारतीय प्रांतों में प्रचलन में रहे होंगे।[31]

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