मराठा साम्राज्य, जिसे मराठा संघ भी कहा जाता है, 18वीं सदी में भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े भाग पर हावी हो गया। मराठा शासन औपचारिक रूप से 1674 में शिवाजी के छत्रपति के रूप में राज्याभिषेक के साथ आरम्भ हुआ। साम्राज्य, 18वीं सदी के मध्य अपने चरम पर, दक्षिण में तमिलनाडु से लेकर उत्तर में पेशावर और पूर्व में उड़ीसा व पश्चिम बंगाल में हुगल नदी तक फैला हुआ था। 1761 में तीसरे पानीपत युद्ध में हार के बाद यद्यपि मराठाओं ने दिल्ली से परे अपना अधिकांश क्षेत्र गँवा दिया, तथापि इस युद्ध के दस साल के भीतर ही उन्होंने स्वयं को उत्तर भारत में पेशवाओं (मराठा शासन के प्रधान मंत्री) और सरदारों के नेतृत्व में फिर बहाल कर लिया।[1]
छत्रपति शिवाजी महाराज ने अनेक सदियों से चले आ रहे विदेशी आधिपत्य को तिरोहित करने के लिए राष्ट्रीय पहचान का जो बीज बोया था, उस बीज ने शिवाजी की मृत्यु के बाद एक सदी से कम की अवधि में ही मराठा साम्राज्य के विशाल वट वृक्ष का रूप ले लिया और इस साम्राज्य का प्रभाव समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में महसूस किया जाने लगा। सच तो यह है कि भारतीय इतिहास में 18वीं सदी को महान मराठाओं की सदी के रूप में जाना जाता है।[2]
इतने विशाल साम्राज्य को प्रभावशाली ढंग से चलाने के लिए, अर्ध-स्वतंत्र मराठा राज्यों का एक संघ शक्तिशाली मराठा प्रमुखों, जिन्हें सरदार कहा जाता था, के अधीन बनाया गया। ये मराठा प्रमुखपेशवा के आधिपत्य में शासन करते थे। शिवाजी के दिनों में और उनके उत्तराधिकारी सम्भाजी, राजाराम और शाहू के शासन कालों के दौरान, पेशवा छत्रपति (मराठा सम्राट) के अधीनस्थ थे। परन्तु शीघ्र ही वे मराठा संघ के वास्तविक नेता बन बैठे और राजा का महल नाम मात्र की ही शीर्ष संस्था बन कर रह गया। मराठा साम्राज्य के अन्तिम वर्षों में, मराठा प्रमुखों और ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्राधिकार के अधीन इन पेशवाओं की हैसियत भी नाम मात्र के नेताओं जैसी हो गयी। पेशवा माधवराव प्रथम के मरणोपरान्त, विभिन्न मराठा प्रमुख जैसे ग्वालियर व उज्जैन के सिन्धिया, बड़ौदा के गायकवाड़, इन्दौर व मालवा के होल्कर, और नागपुर के भोंसले अपने-अपने राज्य क्षेत्रों में वास्तविक शासक बन गये। [3]
शिवाजी के अष्टप्रधान में एक पेशवा पद भी था, जो शाहू के राज्य-काल में वंशानुगत हो गया। पेशवा शासन के अधीन, मराठा केन्द्रीय प्रशासन का केन्द्र पूना स्थित मंत्रालय था, जिसे हुज़ूर दफ़्तर कहा जाता था। प्रान्तीय स्तर पर, देशमुख, देशपाण्डे के साथ मामलतदार व कामविसदार मुख्य कर्मचारी थे। भू राजस्व उनकी आय का प्रमुख स्रोत था और वे यह ध्यान रखते थे कि किसानों पर करों का अत्यधिक बोझ न पड़े। पेशवाओं की न्यायिक व्यवस्था धर्मशास्त्रों पर आधारित थी। दीवानी और आपराधिक न्याय जटिल नहीं था और विवादों को सुलझाने का काम समुदायों पर छोड़ दिया जाता था।[4]
Shobhit Mathur highlights valuable insights on the Maratha Empire
[1] देखें, गोविन्द सखाराम सरदेसाई, New History of the Marathas: The Expansion of the Maratha Power (1707-1772), खण्ड ।।, फ़ीनिक्स पब्लीकेशन्स, बम्बई, 1948
[2] देखें, विनायक दामोदर सावरकर, Hindu-Pad-Padshahi or A Review of Hindu Empire of Maharashtra, बी.जी. पॉल एण्ड कं., मद्रास, 1925
[3] एच.एन सिन्हा, “The New Foundation of Power”, Proceedings of the Indian History Congress, खण्ड 23, 1960, पृष्ठ 230-240
[4] देखें, सुरेन्द्र नाथ सेन, Administrative System of The Marathas, के.पी. बाग़ची एण्ड कं., कलकत्ता, 1925