राजतंत्र

इस काल में राजतंत्र पूरे भारत में वंशानुगत आधारित थी लेकिन ज्‍येष्‍ठाधिकार शासन व्‍यवस्‍था प्रचलन में नहीं थी । इस तथ्‍य की पुष्टि के लिए प्रमाण के तौर पर हमारे पास कई संदर्भ उपलब्‍ध हैं कि राष्ट्रकूट सिंहासन राजा के सबसे बड़े बेटे (कृष्ण I, ध्रुव और गोविंद III के मामले में) को राजतंत्र का कार्यभार नहीं सौंपा गया था । इसके अलावा, राष्ट्रकूट के संस्थापक दंतिदुर्गा को 756 ईस्वी में उनके चाचा कृष्ण I द्वारा उत्तराधिकारी बनाया गया था।[3] अक्सर उत्तराधिकार पाने के लिए युद्ध होता था लेकिन अधिकांश मामलों में सक्षम राजकुमार मंत्रियों के समर्थन से राजा बन जाता था । सामंतों और मंत्रियों के पास यह तय करने में एक निर्णायक की भूमिका होती थी कि किसे सिंहासन सौंपने की पेशकश की जानी चाहिए, जैसे कि जब गोविंदा II को 780 ईस्वी में सिंहासन से हटा दिया गया था, अथवा 936 ईस्वी में अमोघावर्ष III को सिंहासन पर स्थापित किया गया था। सामंतों ने ध्रुव (780-793 ईस्‍वी), जो गोविंदा II के छोटे भाई थे और जो अपने भाई के शासनकाल के दौरान एक प्रांत के गवर्नर थे, से राष्ट्रकूट साम्राज्य की महिमा के लिए सिंहासन स्वीकार करने का अनुरोध किया था, क्‍योंकि उनके बड़े भाई आनंद और विलासित के जीवन में लिप्त हो गए थे और उन्‍होंने अपने साम्राज्‍य की प्रशासनिक जिम्मेदारियों को नजरअंदाज कर दिया था । ध्रुव के उत्‍तराधिकारी के रूप में भी उनके सबसे बड़े बेटे स्तंभ के बजाय उनके छोटे बेटे, गोविंद III (793-814) को सिहांसन की बागडोर सौंपी गई थी क्योंकि गोविंद III एक कुशल प्रशासक और जनरल थे जिन्होंने हमेशा ही अपने मंत्रियों और अधिकारियों को दक्षता के उच्चतम स्तर पर बनाए रखा। गोविंद III ने यह भी महसूस किया कि सिंहासन की लड़ाई में उनके मंत्रियों और उच्च अधिकारियों की सद्भावना और आत्मविश्वास आवश्यक है।[4]

राष्ट्रकूट वंश ने राजा के जीवनकाल के दौरान उत्तराधिकारी चुनने के लिए स्मृतियों की सिफारिश का पालन किया। राष्ट्रकूट साम्राज्य की यात्रा करने वाले अरब यात्री सुलेमान ने अपने यात्रा वृतांत में उल्लेख किया है कि भारत में राजा अपने स्वयं के उत्तराधिकारियों के नाम की सिफारिश करते हैं जो राजकुमार (युवराज) के नामांकन की प्रथा की पुष्टि करता है। गोविंद II को उनके पिता के जीवनकाल के दौरान ही क्राउन प्रिंस नामित किया गया था और दंतिदुर्गा ने भी सभी व्यवस्थाएं की थीं कि उनके चाचा उनके उत्तराधिकारी बनें। हालांकि, उत्तराधिकारी को अभिषेक करने से पहले एक निश्चित आयु स्‍तर को प्राप्‍त करना होता था ।[5] सुकरा जैसे राजनीतिक सिद्धांतकार निर्दिष्ट करते हैं कि राजा को सरकार चलाने से पहले एक वयस्‍क व्‍यक्ति होना चाहिए। एक अन्‍य समकालीन अरब यात्री अल-मसूदी का भी यह मानना था कि 40 वर्ष की आयु से पहले कोई भी राजा नहीं बन सकता है, जो यह साबित करता है कि इस निषेधाज्ञा का पालन किया जाता था।[6] उनकी टिप्पणी स्मृति की उस व्‍यवस्‍था का समर्थन करती है जो कहती है कि किशोर व्‍यक्ति प्रशासन करने में सक्षम नहीं होता है । इसलिए, प्रतिशासक (रीजेंट) राजशाही का प्रतिनिधित्व उस समय तक करते थे जब तक कि नाबालिग राजा राज्य की जिम्मेदारियों का निर्वाह करने की उम्र का नहीं हो जाता था । जब अमोघवर्ष I 814 ईस्वी में सिंहासन पर बैठा, तो उस समय वह सिर्फ तेरह साल का लड़का था । उनके पिता गोविंद II ने अपने भतीजे कर्कका को उसके चचेरे भाई अमोघावर्ष I के लिए प्रतिशासक नियुक्त किया था, जिसका प्रतिशासनकाल(रीजेंसी) नाबालिग राजा के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध हुआ ।[7]

युवराज को पंचमहास’अब्द-सामंत का दर्जा प्राप्त होता था और गले में पहनने के लिए उसे एक हार भेंट किया जाता था जो उसके पद का प्रतीक चिह्न होता था। उस अवधि के नीतिशास्त्र के नियम के अनुसार उन्‍हें मंत्री के रूप में कार्य करने के लिए गांवों को अनुदान देने के शाही विशेषाधिकार का प्रयोग करने का अधिकार प्राप्‍त होता था । जब अमोघवर्ष I और अमोघवर्ष III जैसे राजा वृद्धावस्था में पहुँच जाते थे और सेवानिवृत्त हो जाते थे अथवा वे स्‍वयं को धार्मिक क्रियाकलापों में लिप्‍त कर लेते थे, तो ऐसी स्थिति में उनके उत्तराधिकारी ने उनके लगभग सभी अधिकार ग्रहण कर लिए थे । युवराज के लिए राजधानी में रहने की प्रथा होती थी। उन्हें शायद ही कभी वायसराय के रूप में राष्ट्रकूट प्रशासन के अंतर्गत दूर के किसी प्रांत में भेजा जाता था। आमतौर पर, छोटे राजकुमारों और चचेरे भाइयों को प्रांतीय गवर्नरों के रूप में प्रतिनियुक्त किया जाता था। हमारे पास ऐसे भी उल्‍लेख उपलब्‍ध हैं जिनसे यह पता चलता है कि राजकुमारियों को भी सरकारी पदों और प्रांतों के राज्यपालों के रूप में नियुक्‍त किया जाता था ।[8]

राष्ट्रकूट राजशाही का स्‍वरूप शायद सीमित था जैसा कि भारत के अधिकांश प्राचीन राजवंशों के बारे में कहा जा सकता है। हम देखते हैं कि मंत्रिपरिषद के रूप में संवैधानिक नियंत्रण हमेशा ही मौजूद रहता था। हिंदू राजनीतिक लेखकों ने अक्सर आध्यात्मिक प्रतिबंधों, उपयुक्‍त और उचित शिक्षा, जनमत, एक मंत्रालय के भीतर सत्ता का विभाजन, कानून और कराधान के दायरे में स्थापित प्रथाओं की सर्वोच्चता और स्थानीय लोकतांत्रिक निकायों को बड़ी शक्तियों के हस्तांतरण जैसी व्‍यवस्‍थाओं को राजशाही पर अंकुश के रूप में उल्‍लेख किया है ।[9] राष्ट्रकूट का राजतंत्र देवत्व की अवधारण पर आधारित था, क्योंकि वे अक्सर स्‍वयं को महाकाव्य नायकों और लोकप्रिय देवताओं के साथ जोड़ते हैं, वे न केवल स्‍वयं को शासन करने के लिए वैधता प्रदान करते हैं, बल्कि महाकाव्यों और लोकप्रिय देवताओं के नायकों के आचरण का पालन करते हुए लोगों के कल्याण के लिए शासन भी करते हैं।[10] अल-मसूदी, जिन्होंने राष्ट्रकूट राजा इंद्र III (914-928 ईस्‍वी) के शासनकाल के दौरान भारत का दौरा किया था, ने अपनी यात्रा के समय भारत में राजतंत्र के मामले में प्राचीन राजनीतिक सिद्धांतों के पालन के संबंध में हमारे लिए एक दिलचस्प टिप्‍पणी छोड़ी थी ।[11]
अल-मसूदी का कथन है :

हिंदू शराब पीने से परहेज करते हैं, और वे उन लोगों की निंदा करते हैं जो शराब का सेवन करते हैं; इसलिए नहीं कि उनका धर्म इसे मना करता है, बल्कि इस डर से कि शराब पीने से उनकी चेतना पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वे अपनी विवेक शक्तियों से वंचित हो जाते हैं । यदि उनके किसी राजा के बारे में ऐसा साबित किया जा सकता है कि उसने शराब का सेवन किया है, तो उसके ताज को जब्‍त कर लिया जाता है; क्योंकि मदिरा के सेवन से उसका मन-मस्तिष्‍क प्रभावित होता है और वह अपने राजतंत्र का दायित्‍व निर्वाह और शासन करने के योग्‍य नहीं रह जाता है ।

मंत्री

राजा के अधीन सबसे महत्वपूर्ण पद प्रधान मंत्री का था जिसे उस अवधि के शिलालेखों में विभिन्न नामों के साथ संदर्भित किया गया था जैसे सर्वदर्श (मंत्रालय के सदस्यों पर अधीक्षक या सर्वस्या अनुष्ठान (सभी प्रशासन के प्रभारी व्यक्ति) या सर्वाधिकारिन (पूरे प्रशासन पर शक्ति रखने वाला अधिकारी) जो महता की दृष्टि से राजा के बाद दूसरा वरिष्‍ठ पद होता था । उसकी पदवी में पांच प्रतीक चिह्न होते थे, अर्थात् एक ध्वज, एक पंखा, एक सफेद छतरी, एक शंख, एक बड़ा ड्रम, और पंचमहाशब्द नामक पांच संगीत वाद्ययंत्र उनकी पदवी को प्रदर्शित करते थे। उनके अधीन दंडनायक (सेनापति), महासंधिविग्रहक (विदेश मंत्री) और महामतया या पूर्णमत्य (प्रधान मंत्री) थे, जिनमें से सभी ऐसे सामंती राजाओं जिनके पास उच्च स्तरीय सरकारी पद होता था, किसी एक से संबद्ध होते थे । एक महासमंथ एक सामंती स्वामी या शीर्ष शाही अधिकारी होता था।[13] कैबिनेट के सभी मंत्रियों को राजनीति और सैनिक प्रशिक्षण का व्यापक ज्ञान प्राप्‍त होता था। राष्ट्रकूट साम्राज्य में कई विदेश मंत्री या सचिव होते थे जिन्हें संधिविग्रहक कहा जाता था, जो एक मुख्य विदेश मंत्री के निर्देशों के तहत काम करते थे। धर्मांकुस राष्ट्रकूटों के अधीन धर्म और नैतिकता के प्रभारी मंत्री होते थे।[14]

प्रशासनिक इकाइयाँ

प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए विशाल राष्ट्रकूट साम्राज्य को कई प्रांतों में विभाजित किया गया था । प्रत्‍यक्ष रूप से प्रशासित क्षेत्रों को राष्ट्रों और विश्यास में विभाजित किया गया था जो मोटे तौर पर आधुनिक डिवीजनों और जिलों की तरह होते थे। इस प्रकार, राष्ट्र सबसे बड़ी प्रशासनिक इकाई थी और विश्या इसका उपखंड होता था। विश्या मोटे तौर पर एक आधुनिक जिले की तरह होता था जिसमें 1,000 से 4,000 तक की संख्‍या में गांव होते थे। अगला क्षेत्रीय विभाजन एक भुक्ति के रूप में किया जाता था। विश्या को भुक्तियों में विभाजित किया गया था जिसमें 50 से 70 गांव शामिल होते थे, और उनका नाम मुख्यालय शहरों के नाम पर रखा गया था। भुक्तियों को आगे 10 से 20 गांवों के छोटे समूहों में विभाजित किया गया था। भुक्ति एक पुरातन प्रशासनिक प्रभाग है जिसका उल्‍लेख गुप्त काल से मिलता है। गाँव स्वयं सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई होती थी।[15]

प्रादेशिक प्रभागों के प्रशासनिक अधिकारी

राष्ट्रकूट के भूमि अनुदान में आमतौर पर राष्ट्रपतियों, विश्यपतियों और ग्रामकुटों को इसी उल्लिखित क्रम में संदर्भ मिलता है। प्रत्येक राष्ट्र को, चार या पांच आधुनिक जिलों के बराबर के क्षेत्र को, एक राष्ट्रपति द्वारा शासित किया जाता था जिसे उनकी विशिष्ट सैन्य सेवाओं के सम्‍मान के तौर पर नियुक्त किया जाता था। राष्ट्रपति सैन्य और नागरिक प्रशासन का प्रबंधन करता था। राज्य की शांति और व्यवस्था उस पर निर्भर होती थी, क्‍योंकि उसे कुछ सामंतों और अधिकारियों की निगरानी करनी होती थी। यदि कोई सामंत विद्रोह करता था, तो उस स्थिति से निपटने के लिए राष्ट्रपतिय से उम्मीद की जाती थी कि वह तत्काल दंडात्मक कार्रवाई करें । अत:, राष्ट्रपति को अपनी कमान के तहत पर्याप्त सैन्य बल रखना पड़ता था । वह स्‍वयं भी उच्च श्रेणी का सैन्य अधिकारी होता था। राष्ट्रपति राजकोषीय प्रशासन का प्रभारी होता था और उसकी यह सुनिश्चित करने की जिम्‍मेदारी होती थी कि भूमि कर का संग्रह (कलेक्‍शन) समय पर हो । उसके अन्य कार्यों में अपने गांवों पर ध्‍यान देने के अलावा स्थानीय अधिकारों और विशेषाधिकारों, जिनके तहत राजस्व मंदिरों और ब्राह्मणों को दिया जाता था, पर पैनी नजर रखे । हालांकि, राष्ट्रपति शाही अनुमति के बिना किसी भी राजस्व को छोड़ने के लिए अधिकृत नहीं था । उन्‍हें जिला और उप-जिला अधिकारियों का चयन करने का भी अधिकार नहीं होता था ।[16] शाही राजकुमारों को भी कुछ प्रांतों का गवर्नर नियुक्‍त किया जाता था, जिसका अर्थ है कि राष्ट्रकूट राजकुमार राष्ट्रपति का पद धारण करते थे ।

विश्‍यापति या जिला अधिकारी अपने छोटे अधिकार क्षेत्र के भीतर राष्ट्रपति की तरह कार्य करते थे। कुछ विश्यापतियों को प्रांतीय गवर्नरों की तरह सामंती दर्जा प्राप्त था। इन पदों पर नियुक्ति आमतौर पर या तो प्रशासनिक क्षमता के सम्‍मान के तौर पर या सैन्य सेवा के लिए पुरस्कार के रूप में की जाती थी। विश्यापतियों का पद उन मामलों में वंशानुगत होता था जब अधिकारियों के ऐसे बेटे होते थे जो युद्ध के मैदान में या सचिवालय में उत्कृष्ट सेवा प्रदान करने के आधार पर नियुक्‍त किए जाते थे। विश्यपतियों के पास काफी राजस्व शक्तियों होती थी और जिसकी पुष्टि पाई गई कई तांबे की प्लेटों से हो जाती है, जिनमें अनुरोध किया गया है कि वे दी गई भूमि या गांवों के लाभार्थी को कब्जे से दखल न करें। वे अपने जिलों के राजस्व के लिए प्रांतीय गवर्नरों और केंद्र सरकार के प्रति जिम्मेदार रहते होंगे। अधीनस्थ अधिकारियों को करों की छूट के लिए उनकी मंजूरी की आवश्यकता होती थी। विश्यापति अपने प्रशासनिक कार्यों में विश्या-महातरों की एक परिषद का सहयोग लेते थे, जो जिले के विशिष्‍ट व्‍यक्तियों का एक निकाय होता था।[17]

भुक्ति के प्रशासन के प्रभारी अधिकारी को भोगपति या भोगिका कहा जाता था। उसका पद तालुकों के आधुनिक उप-प्रभागों के अधिकारियों के समान था । आमतौर पर, ये अधिकारी सामंती प्रभुत्‍व वाले नहीं होते थे। बल्कि, वे साधारण व्‍यक्ति होते थे। राष्ट्रकूट के अभिलेखों में भोगपति के साथ-साथ राष्‍ट्रपति और विश्यपतियों का उल्लेख नहीं मिलता है, शायद इसलिए कि उनके पास राष्ट्रपति और विश्यपतियों जैसी पर्याप्त राजस्व शक्तियां नहीं होती थीं। प्रशासनिक सुविधा के लिए गांवों को मिलाकर समूहों में रखा जाता था और उनका प्रभार नल-गावुंदास नामक अलग-अलग अधिकारियों को सौंपा जाता था, जिसका अनुवाद स्‍थानीय शेरिफ के रूप में किया जा सकता है । नल-गावुंदास या तो अकेले ही या अन्य गावुंदासों के साथ मिलकर संयुक्त रूप से, भूमि का आवंटन कर सकते थे, राजस्व हस्तांतरित कर सकते थे, और पवित्र वस्तुओं के लिए छूट प्रदान कर सकते थे।[18] नल-गावुंदास जिन्हें देशग्रामकुट के रूप में भी जाना जाता था, ग्रामीण इलाकों के वंशानुगत राजस्व अधिकारी होते थे, जो राजस्व प्रशासन में विश्यपति और भोगपति की सहायता करते थे । इन अधिकारियों को उनकी सेवाओं के भुगतान के रूप में किराया मुक्त भूमि दी जाती थी।[19]

राष्ट्रकूट साम्राज्य में, प्रशासनिक शक्तियों वाले गैर-सरकारी निकाय भी मौजूद थे। राष्ट्रकूट के अभिलेखों में विश्यामहात्‍तारों और राष्ट्रमाहत्‍तरों का उल्लेख भी है, जो जिला और प्रांतीय मुख्यालयों में लोकप्रिय निकायों के मौजूद होने का संकेत देते हैं, जो संभवतः आज के भारतीय शहरों में नगरपालिका के समान कार्य करते थे । विश्यामहात्‍तर जिला परिषद के सदस्य होते थे जबकि राष्ट्रमहात्‍तर प्रोविजनल परिषद के सदस्य होते थे। शायद, राष्ट्रमहात्तर और विश्वमहात्तर क्रमशः प्रांत और जिले में प्रतिष्ठित और वृद्ध व्‍यक्तियों का निकाय होते थे।[20]

नगर और ग्राम प्रशासन

आरंभ से ही यह प्रथा थी कि नगरों और शहरों को अलग-अलग अधिकारियों के अधिकार क्षेत्र में रखा जाता था। अर्थशास्त्र और मनुस्मृति ने इस नियम को निर्धारित किया गया है। महत्वपूर्ण नगर और शहर अपने आप में एक प्रशासनिक इकाई होते थे और उनका प्रशासन उन पुरापतियों या नागरपतियों द्वारा चलाए जाते था, जो उन इकाइयों के प्रभारी होते थे। प्राय: इन पदों पर सैन्य कप्तानों को नियुक्त किया जाता था। शहर के मामलों को अधिकारियों द्वारा गैर-सरकारी समितियों की मदद से प्रबंधित किया जाता था जिनके सदस्यों को विश्‍यामहात्‍तर कहा जाता था। हमारे पास ऐसा पर्याप्त रिकॉर्ड उपलब्‍ध है जो इंगित करता है कि शहर के प्रशासन की शक्तियां बैंकरों, व्यापारियों और निगमों की समितियों में भी निहित होती थी । इससे यह पता चलता है कि नगर परिषद में प्रतिनिधित्व के उद्देश्य से शहरों और नगरों को कई वार्डों में विभाजित किया गया था। चूंकि नगर समिति के सदस्य गैर-सरकारी होते थे, इसलिए उनका चयन या चुनाव किया जाता होगा । वे उन राष्ट्रपतियों के नियंत्रण में होते होंगे जिनके अधिकार क्षेत्र में शहर स्थित होते थे। शहरों का प्रशासन काफी कठोर होता होगा और इसका उपयोग आंशिक रूप से समय-समय पर पर्यटन के माध्यम से नियमित आधिकारिक पदानुक्रम द्वारा किया जाता था - मनु और सुकरा द्वारा अनुशंसित एक सिद्धांत। शाही सचिवालय से आदेश सीधे विशेष दूतों द्वारा भेजे जाते थे, जिन्हें वल्लभजनसंचारिनः (शाही आदेशों के वाहक) के रूप में जाना जाता था। इस काल में पुलिस अधिकारियों को चोरोधरणिका या दंडपासिका के रूप में जाना जाता था।[21]

जहां तक गांवों और कस्बों के प्रशासन का प्रश्‍न था, उसमें लोकप्रिय व्‍यक्तियों महत्‍वपूर्ण भूमिका होती थी । प्राचीन भारतीय गांवों में, औपचारिक चुनाव नहीं होते थे, लेकिन ग्राममहात्तर नामक गांवों के बुजुर्ग स्थानीय स्कूलों, मंदिरों, तालाबों और सड़कों का प्रबंधन करने के लिए उपसमितियों को नियुक्त करते थे । उन्हें दानकर्ताओं द्वारा निर्धारित शर्तों के अनुसार ट्रस्ट की संपत्तियों के प्रबंधन की जिम्मेदारी भी सौंपी जाती थी । ये उपसमितियां ग्राम प्रधान के साथ मिलकर सहयोग करती थी और इन्‍हें विभिन्न जन कल्याण योजनाओं के क्रियान्‍वयन हेतु निधि देने के लिए स्थानीय बजट का एक उचित हिस्सा आवंटित किया जाता थी । सिविल मुकदमे भी ग्राम परिषद के अधीन आते थे और इसके फैसलों को सरकार द्वारा सही ठहराया जाता था।[22]

हालांकि, आधिकारिक तौर पर राष्ट्रकूट साम्राज्य में ग्राम प्रशासन ग्रामकुट नामक ग्राम प्रधान और ग्राम लेखाकार द्वारा किया जाता था, जिनके पद आमतौर पर वंशानुगत होते थे। मुखिया के पास गांव में कानून और व्यवस्था बनाए रखने का प्रभार होता था और उसके पास अपने कर्तव्यों को पूरा करने में मदद करने के लिए एक स्थानीय सेना होती थी। गांवों में शांति को बाधित करने में सामंतों के विद्रोह और पड़ोसी गांवों के बीच संघर्ष प्रमुख कारक होते थे । चोर और डाकू जैसी समस्या से बहुत कम थी । इन अवसरों पर, ग्राम प्रधानों से सैन्य कप्तानों के कर्तव्यों का पालन करने की उम्मीद की जाती थी, और उनके लिए अपने साथी ग्रामीणों के घरों और चूल्हों की रक्षा करते हुए अपनी जान देना कोई असामान्य नहीं होता था। गांवों से राजस्व प्राप्त करना और राजा के खजाने और अन्न भंडार में उनका भुगतान करना उनकी जिम्‍मेदारी होती थी । उन्हें किराया-मुक्त भूमि के माध्‍यम से पारिश्रमिक दिया जाता था और भुगतान किए गए कुछ छोटे करों के कार्य को साधन्याहिरण्य्यदेह के रूप में संदर्भित किया जाता था। राष्ट्रकूट गांव के अनुदान शिलालेखों में 'सोदरांगा सोपरिकरह' शब्द का उल्‍लेख है जो भूमि राजस्व के अलावा कुछ करों को संदर्भित करता है। गांव के लेखाकार ग्राम प्रधान के सहायक के रूप में काम करते थे जो गांव के महत्वपूर्ण अधिकारी होते थे।[23]

राजस्व और कर

राष्ट्रकूट साम्राज्य के राजस्व के प्रमुख स्रोतों को पांच शीर्षों के तहत वर्गीकृत किया जा सकता है। ये थे:

  • नियमित कर
  • पुरालेखीय साक्ष्य से पता चलता है कि भागकारा या उदरंगा भूमि कर होता था और यह राजस्व का मुख्य स्रोत था। उदरंगा नियमित रूप से साम्राज्य के सभी गांवों में लगाया जाता था। इस भुगतान अक्सर दो या तीन किस्तों में किया जाता था। ब्राह्मणों और मंदिरों को दी गई भूमि के मामले में, कराधान की व्‍यवस्‍था आमतौर पर नियमित कर की तुलना में कम होती थी, और कुछ मामलों में तो उन्‍हें सभी करों से पूर्ण स्वतंत्रता की मंजूरी दी गई थी। इस अवधि का एक और महत्वपूर्ण नियमित कर भोगकारा या उपरिकारा था। भोगकारा से अभिप्राय ऐसे छोटे करों से है जो राजा को हर दिन वस्‍तु के रूप में भुगतान करना पड़ता था। इस तरह के कर, राजा को पान के पत्ते, फल, सब्जियां आदि के रूप में दिए जाते थे, जब वह दौरे पर होता था । अत:, इन करों को प्राप्‍त करने का अधिकार स्थानीय अधिकारियों को सौंपा गया था जो आमतौर पर उनकी आय के एक हिस्से के रूप में होता था ।[24] राष्ट्रकूट शिलालेख में भूतोपट्टप्रत्यय नामक एक कर का उल्लेख है जो सामान्य उत्पाद शुल्क और चुंगी (उपभोग के लिए जिले में लाई गई विभिन्न वस्तुओं पर लगाया गया एक स्थानीय कर) शुल्क होता था जिसकी कलेक्‍शन गांवों में की जाती थी । चुंगी और उत्पाद शुल्क कभी-कभी माल और नकदी में भी कलेक्‍ट किए जाते थे। मक्खन और लकड़ी के कोयले पर देय करों का भुगतान वस्‍तु रूप में किया जाता था, लेकिन चुंगी शुल्क और सीमा शुल्क का भुगतान नकद में किया जाता था।

    विष्टि या जबरन श्रम भी एक प्रकार का नियमित कर होता था जिसका हमारी अवधि के अधिकांश रिकॉर्ड में उल्‍लेख मिलता है । जब केंद्र सरकार के राजा और अधिकारी किसी गांव का दौरा करते थे, तो मुखिया कारीगरों और मजदूरों को राज्य के हित में ग्राम समुदाय के लिए काम करने के लिए कह सकता था। उन्हें आमतौर पर सरकारी अनाज भंडार की सफाई, भुगतान किए गए भूमि कर को तौलने या मापने और गांवों के सार्वजनिक कार्यों जैसे गांव के तालाबों या कुओं की खुदाई आदि जैसे कार्यों को सौंपा जाता था।[25]

  • सामयिक कर या मांग
  • नियमित और अनियमित सैन्य और पुलिस बलों के आगमन के समय की कार्रवाई को चतभातप्रवेश अदंड के रूप में संदर्भित किया जाता था। चतास और भाटा राज्य के पुलिस और सैन्य बलों के सदस्य होते थे, और जब वे मार्च के दौरान एक गांव में रहते थे, तो ग्रामीणों को उनकी कई मांगों को पूरा करना पड़ता था। हालांकि, अधिकांश गांवों को इस मांग से छूट दी गई थी। शुक्रनीति में कहा गया है कि सैनिकों को एक गांव के बाहर अपना डेरा डालना चाहिए और आधिकारिक कामकाज को छोड़कर गांव में प्रवेश नहीं करना चाहिए। इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि उस अवधि की अच्छी सरकारें उच्च अधिकारियों की अनुमति के बिना सैनिकों को गांवों में प्रवेश करने से रोककर उनकी गतिविधियों को कम करने की कोशिश करती थीं। राजसेवकनम वासतीदंडप्रयानदंडौ एक और अन्य सामयिक कर होता था जो शाही अधिकारियों के रुकने या प्रस्थान के समय लगाए गए देयों को संदर्भित करता है। पुत्र के जन्म या विवाह जैसे उत्सवों के अवसरों पर राजा और उच्च अधिकारियों को प्रथागत उपहार इस श्रेणी में आते हैं।[26]

  • जुर्माना
  • जुर्माने से प्राप्‍त आय शायद ही राज्य की कुल आय का एक सराहनीय अंश होता हो, और उसका एक बड़ा हिस्सा न्यायपालिका पर खर्च किया जाता होगा। इस संबंध में सामान्य अभिव्यक्ति सदनदास अपराध है लेकिन कभी-कभी दंडया या प्रतिशिद्ध्य जैसे अधिक अभिव्यंजक शब्दों का उपयोग किया गया है। इन जुर्मानों का एक हिस्सा ग्राम परिषद के समक्ष मामले की सुनवाई से जुड़े खर्चों को पूरा करने में खर्च किया जाता था, जबकि शेष सामान्य रूप से राज्य के खजाने में जाता था।[27]

  • सरकारी संपत्तियों से आय
  • इस श्रेणी के तहत आय ऐसी खानों, जंगलों और बंजर भूमि से होती थी, जिसके स्वामित्व का दावा राज्य के पास होता था । कृषि योग्य भूमि का स्वामित्व, हालांकि, निजी व्यक्तियों और परिवारों में निहित था। राज्य उन्हें केवल तभी जब्त कर सकता था जब राजस्व की मांग का अनुपालन नहीं किया जाता हो। हमें सहभ्यंतरसिद्धि जैसी अभिव्यक्तियां देखने को मिलती हैं जो पृथ्वी के आंतरिक भाग में खनिज संपदा पर राज्य के अधिकार के रूप में दान करने का सुझाव देती हैं।

  • सामंतों की ओर से दिया जाने वाला सम्‍मान
  • सामंतों को राष्ट्रकूट राजाओं को सम्‍मान के रूप में अपने राजस्व की एक निश्चित राशि का भुगतान भी करना पड़ता था।

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