मराठा राज्य का आदर्श (स्वराज्य) और शासनतंत्र

1674 में शिवाजी ने रायगढ़ में स्वयं राज-मुकुट धारण किया और भारत के इतिहास में ‘राज्याभिषेक युग’ के रूप में एक नये युग की शुरूआत हुयी। शिवाजी मुग़ल साम्राज्य से पूर्णतः अलग होना चाहते थे और इसीलिये उन्होंने अपने राज्य में नये सिक्के और नयी राज मुहर का चलन शुरू किया। शिवाजी ने महाभारत व शुक्रनीति जैसे ग्रन्थों का अध्ययन कर प्राचीन भारतीय राजनीतिक लेखकों के प्रशासनिक विचारों को आस्मसात् किया और पाया कि शासन व्यवस्था मंत्रि-परिषद में निहित होनी चाहिए। अष्टप्रधान नाम से लोकप्रिय उनके द्वारा गठित आठ मंत्रियों की परिषद और इनके पदनाम संस्कृत भाषा में रखना वस्तुतः प्रचीन हिन्दू राजनीतिक संस्थाओं को पुनर्जीवित करने के उनके वृहद प्रयासों का ही एक अंग था।[7]

परन्तु व्यावहारिक राजनेता के रूप उनका प्रतिभाशाली व्यक्तित्व तो तब उभर कर सामने आता है जब उन्होंने प्राचीन भारतीय प्रशासनिक संस्थाओं को अपने समकालीन प्रशासनिक संत्र में आत्मसात् कर दिया और अपनी प्रजा व अपने समय के अनुकूल प्रशासन की नयी-नवेली व्यवस्था का आविष्कार किया। समग्रतः, “शासक अपने युग की पहचान होता है” यह प्राचीन भारतीय सूक्ति राजतंत्र के विषय में शिवाजी की शासन-संकल्पना में अभिव्यक्ति पाती है।[8] समकालीन लेखक शिवाजी महाराज को अवतारी पुरुष मानते हैं, जिन्होंने स्वराज्य की स्थापना के पीछे दिव्य शक्ति का हाथ देखा।[9] शिवाजी की लगभग चमत्कारी उपलब्धियों पर विचार करते हुये, हम उनकी इन भावनाओं को बख़ूबी समझ सकते हैं। लेकिन उत्सुकता तब और बढ़ जाती है जब समकालीन विदेशी लेखक भी शिवाजी की अवतार किंवदन्ती का समर्थन करते हुए उन्हें अलौकिक मानव का दर्जा देते हैं।[10]

शिवाजी द्वारा मराठा राज्य की स्थापना हिन्दवी स्वराज्य की संकल्पना में समाविष्ट सच्चे राष्ट्र भाव की महान अभिव्यक्ति है। उस युग में महाराष्ट्र ने सभी जातियों के अनेक सन्तों जैसे श्री चक्रधर, ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम, जनाबाई और समर्थ रामदास (शिवाजी के गुरु) को देखा। इन सन्तों ने महाराष्ट्र के लोगों को सामाजिक व आध्ययात्मिक रूप से जागृत किया और उनमें लोकतांत्रिक समानता व एकरूपता के नए भाव का सञ्चार किया। इस प्रकार, शिवाजी ने न केवल महाराष्ट्र के महान सन्तों की शिक्षाओं से प्रेरणा ली, बल्कि इन सन्तों के प्रभाव से चतुर्दिक फैली आध्यात्मिक व सामाजिक चेतना ने स्वराज्य की खोज में उनकी सहायता भी की। शिवाजी के गुरु, रामदास ने एक स्वतंत्र राज्य की मराठा महत्वाकांक्षा को धार्मिक-राजनीतिक आयाम दिया।[11] इस प्रकार, शिवाजी धर्म (नीति परायणता) के रक्षक के रूप में उभरे और उन्होंने मराठा राज्य क्षेत्र को सामाजिक समरसता एवं किसान-कल्याण के सिद्धान्त के आधार पर एकल राज्य-निकाय के रूप में सूत्रबद्ध किया। उन्होंने धर्म को ही अपने स्वराज्य के मूल में संस्थापित किया। उनका यह भी दृढ़ विश्वास था कि उनका राज्य ईश्वर के आदेश से चलता है और वे अपनी राजसी सत्ता का इस्तेमाल अपनी प्रजा की ख़ुशहाली के लिये करते हैं।

कट्टरता और निष्ठुरता के युग में, उन्होंने प्रतिभाओं का सम्मान करते हुए उनके लिये जीविका के साधन उपलब्ध कराये। उनके राज्य में समूची प्रजा को उनका संरक्षण प्राप्त था और सभी लोग सुरक्षित थे। उनके स्वराज्य में किसानों के कल्याण पर अत्यधिक ज़ोर दिया जाता था। चूँकि ज़मीन्दार खेतिहरों के साथ अकसर अन्याय करते थे, इसलिये शिवाजी ने ज़मीन्दारों को अपने कठोर नियंत्रण में रखा और सरकरार एवं खेत जोतने वालों के बीच किसी बिचौलिये क आने ही नहीं दिया। शिवाजी ने अपने प्रशासनिक एवं राजस्व अधिकारियों को अप्रैल 1673 में एक पत्र लिखा और यह पत्र आमजनों के प्रति उनकी चिन्ता को बख़ूबी व्यक्त करता है। वे अपने पत्र में लिखते हैं:
यदि आप ग़रीब खेतिहरों की अनाज, रोटी, घास, ईंधन, अथवा शाक-सब्ज़ी लूट कर उन्हें इन वस्तुओं से वञ्चित करते हो, तो उनके लिये जीवन दूभर हो जायेगा और वे भाग खड़े होंगे। बहुत से तो भूख से मर जायेंगे। ऐसी स्थिति में ये ग्रामीण आप लोगों को उन मुग़लों से भी निकृष्ट मानेंगे, जो उन्हें रास्ता चलते तंग करते रहते हैं। आप लोग यह बात अच्छी तरह समझ लें और अपना बर्ताव ठीक रखें। आप अपनी रैयत को तिल भर भी कष्ट नहीं पहुँचा सकते। आपको जिस वस्तु- अनाज, घास, ईंधन, शाक-सब्ज़ी या अन्य किराना-की ज़रूरत हो, उसे आप बाज़ार से ख़रीदें। आपको किसी के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती करने अथवा लड़ने-झगड़ने की ज़रूरत नहीं है। [12]

उनकी प्रजा उन्हें अपना मुक्तिदाता, उद्धारक और रक्षक मानती थी।[13] अपने प्रिय नायक के प्रति जनमानस के हृदय में जो असीमित प्रशंसा भाव था, वही भाव स्वराज्य की स्थापना में शिवाजी की असली प्रेरक शक्ति थी। रामचन्द्रपन्त अमात्य जो शिवाजी के वित्त मंत्री थे, ने अपने छत्रपति (सम्राट) की राजनीतिक विचार-धारा को अपने आज्ञापत्र में प्रतिबिम्बित किया है। इस आज्ञपत्र में उन्होंने शिवाजी के आदर्शों, सिद्धान्तों एवं राज्य प्रशासन की उनकी नीतियों को औपचारिक रूप से प्रलेखबद्ध किया है।[14] उन्होंने स्वराज्य की भव्य राजव्यवस्था के प्रमुख लक्षणों के बारे में स्पष्ट व्याख्या की है। शिवाजी केस्वराज्य में प्रशासन के मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं:

  1. अपनी प्रजा की ख़ुशहाली और राज्य के आम कल्याण का संवर्धन
  2. स्वराज्य की प्रतिरक्षा के लिये कुशल सैन्य बल की व्यवस्था
  3. कृषि एवं उद्योग के संवर्धन द्वारा लोगों की आर्थिक ज़रूरतों को पर्याप्त रूप से पूरा करना।[15]

प्रशासनिक प्रभाग

मुग़ल साम्राज्य और दक्कन राज्यों में राजव्यवस्था को सूबाओं, सरकारों, परगनाओं और मौजों में बाँटा गया था। शिवाजी ने इन प्रभागों के स्थान पर प्रान्त, तरफ और मौजों का चलन शुरू किया। परन्तु प्रभागों के पुराने नाम काफ़ी समय तक प्रचलन में रहे, और इसीलिए राज्य क्षेत्रों की पहचान करने में बहुत अधिक सम्भ्रम बना हुआ है। शिवाजी के अधीन बारह प्रान्त थे। यद्यपि नागरिक राज्य क्षेत्र शिवाजी के सीधे प्रभाव में थे, तथापि इस क्षेत्र को 17 ज़िलों में बाँटा गया था। हरेक प्रान्त एक सूबेदार और एक कारकुन के अधीन रखा गया था, जबकि तरफ एक हवलदार द्वारा शासित था। सूबेदार औरसरसूबेदार को शिवाजी ने संस्कृत नाम देते हुए इन पदनामों को देशाधिकारी और मुख्य-देशाधिकारी नामों से पुकारा, जबकि कारकुन और सरकारकुन को क्रमशः लेखक और मुख्य-लेखक कहा गया (तथापि, शासकीय पत्र-शीर्षों पर पुराने फ़ारसी नाम लिखना भी जारी रहा, क्योंकि संस्कृत नाम शायद लोकप्रिय नहीं हुए।)। कुछ गाँवों को एक कामविसदार के अधीन रखा गया।

प्रत्येक सूबेदार के पास सामान्यतः आठ सहायक होते थे, जो विभिन्न कार्यों के प्रभारी थे। उनके पदनाम थेः दीवान,मज़ूमदार, फडनीस, सबनीस, कारखानीस, चिटणीस, जमादार और पोटणीस।[16] इस प्रकार, प्रशासनिक प्रभाग निम्नवत थेः

प्रभाग---सरसूबेदार
सूबा---सूबेदार
परगना---सरहवलदार और वतनदार
तरफ, हवल या महल---तरफदार, हवलदार या महलदार
ग्राम संघ---कामविसदार
मौज़ा और कसबा---पाटिल
पेठ---सेठ महाजन

आठ मंत्रियों की परिषदः अष्टप्रधान

शिवाजी ने प्रतिभासम्पन्नों के लिये व्यवसाय के द्वार खोले और छोटे दर्जे के लोगों को बड़े-बड़े कार्य करने के लिये प्रेरित एवं तैयार किया। इस प्रकार के प्रयासों में ही प्रशासक के तौर पर उनकी प्रतिभा सामने आती है। मोरोपन्त पिंगले, जो उनके पारिवारिक पुरोहित थे, उनके प्रधान मंत्री बने; गाँव के एक लेखाकार अन्नाजी दत्त अपनी प्रतिभा के बल पर वित्त मंत्री पद पर आसीन हुए। शिवाजी द्वारा प्रशिक्षित लोगों ने युद्ध में महानतम सेनानायकों और सूचनीति में महानतम राजनेताओं का सामना किया। सोनाजी पन्त दाबीर ने औरंगज़ेब से वार्ता कीं और सुन्दरजी प्रभु ने अंग्रेज़ों से। प्रह्लाद नीराजी क़ुतुब शाह के दरबार में राजदूत थे। शिवाजी का उद्देश्य अपनी प्रशासन व्यवस्था में सभी जाति व सम्प्रदायों को समान अवसर प्रदान करना था। इस प्रकार, प्राचीन शास्त्रों की अनुशंसानुसार राज्य की प्रशासन व्यवस्था को सञ्चालित करने में मंत्रियों (प्रधानों) की महत्ता को पूरी तरह स्वीकार करते हुए, शिवाजी और उनकी माता जीजाबाई ने बहुत पहले 1642 में ही शामराज नीलकण्ठ रञ्ज़ेकर को पेशवा, बालकृष्ण पन्त हनुमन्ते को मजूमदार, सोनोपन्त को दाबीर, और रघुनाथ बल्लाल को सबणीस के पदों पर नियुक्त कर दिया था। यही वह केन्द्रक था जिसने बाद में आठ मंत्रियों की परिषद अर्थात्अष्टप्रधान के रूप में प्रसिद्धि पायी।[17]

आठ मंत्रियों की परिषद अर्थात् अष्टप्रधान शिवाजी के सचिवों के रूप में तैनात थे और उनका कार्य केवल सलाह देना था। ये मंत्री मुख्यतः अपने-अपने विभागों के कामों का पर्यवेक्षण करते थे। उल्लेखनीय है कि शिवाजी ने कभी ईसाई धर्म विषयक विभाग और लेखा विभाग में हस्तक्षेप नहीं किया। शिवाजी ने अपने आठ मंत्रियों एवं अन्य विभागीय प्रमुखों के कर्तव्य भी निर्धारित किये। यहाँ यह बताना भी समीचीन है कि उनकी अष्टप्रधान संकल्पना जो मूलतः एक संविभाग प्रणाली है, शासन विज्ञान के प्राचीन ग्रन्थ शुक्रनीति पर आधारित थी। मंत्रियों के नाम और कार्य काफ़ी हद कर केवल शुक्र की राज्यव्यवस्था से अंगीकार किये गये थे।[18] आठ मंत्रिगण और उनके कर्तव्य निम्नानुसार थेः[19]

  1. पेशवा या मुख्य प्रधान (प्रधान मंत्री): वह राज्य के सम्पूर्ण प्रशासन के प्रभारी थे। उनसे अपेक्षा थी कि वे परिषद के साथ अपने सहकर्मियों का सहयोग लेकर काम करेंगे। युद्ध की स्थिति में सेना का बहादुरी से नेतृत्व करना, नये राज्य जीतना और इन नवार्जित राज्य क्षेत्रों के प्रशासन हेतु सभी आवश्यक प्रबन्ध करना उनका दायित्व था। सभी काग़ज़ात और अधिकारों-पत्रों पर राजा की मुहर के नीचे उनकी मुहर लगाना ज़रूरी था।

  2. अमात्य या मजूमदार (वित्त मंत्री): उन्हें सार्वजनिक आय-व्यय के हिसाब-किताब की पड़ताल करनी होती थी और इसकी सूचना राजा को देनी होती थी। साथ ही, उन्हें आम तौर पर राज्य के एवं विशेष रूप से ख़ास ज़िलों के सभी लेखा-विवरणों पर प्रति-हस्ताक्षर करने होते थे।

  3. मंत्री या वाक़यानवीस (राजनीतिक सचिव): उनके कर्तव्य थेः राजा के कार्य-कलापों एवं न्यायालयों की घटनाओं का अभिलेख रखना, एवं राजा की आमंत्रण सूची, उनके भोजन और उनके साथियों के आगागमन आदि पर निगरानी रखना, हत्या षड़यंत्र से राजा की रक्षा करना। आमंत्रण एवं आसूचना विभाग उनके नियंत्रण में थे। उन्हें युद्ध में भी सेवा देनी होती थी। शासकीय प्रलेखों पर उनकी मुहर भी लगायी जाती थी।

  4. सचिव या शुरुनवीस (अधीक्षक): उन्हें यह सुनिश्चित करना होता था कि सभी शाही पत्रों को उचित प्रारूप में प्रस्तुत किया जाता है। उन्हें महलों एवं परगनाओं के हिसाब की भी जाँच करनी होती थी।

  5. सुमन्त या दाबीर (विदेश सचिव): वे विदेशी राज्यों के साथ सम्बन्ध, युद्ध और शान्ति के बारे में राजा के सलाहकार थे। अन्य देशों के बारे में आसूचना रखना, विदेशी राजदूतों की अगवानी व बरख़ास्तगी, और विदेशों में राज्य की गरिमा बनाये रखना भी उनके ये कर्तव्य थे।

  6. सेनापति या सर-ए-नौबत (मुख्य सेना नायक): सेना का भरण-पोषण, युद्ध व अभियानों का नेतृत्व करना उनका कार्य था। नवार्जित क्षेत्रों का परिरक्षण, हिसाब देना, सेना की अपेक्षाओं को राजा तक पहुँचाना, गुणवानों के लिये भूमि व पुरस्कारों की व्यवस्था करनाः इन कार्यों का भी उन पर दायित्व था।

  7. पण्डित राव एवं दानाध्यक्ष (धर्म प्रमुख): इनका कार्य था राजा की ओर से विद्वान ब्राह्मणों को समादृत व पुरस्कृत करना, धर्म विज्ञान विषयक प्रकरणों को सुलझाना, धार्मिक समारोहों की तिथियाँ निश्चित करना, नास्तिकता व पाखण्ड को दण्डित करना, और प्रायश्चित का आदेश देना। वे संयुक्त रूप से सिद्धान्त विधि के न्यायाधीश, राजकीय चिकित्सा समाज सेवी और सार्वजनिक सदाचार रक्षक थे।

  8. न्यायाधीश (मुख्य न्यायाधीश): वे हिन्दू विधि के अनुसार दीवानी व फ़ौजदारी प्रकरणों का विचारण करते थे, और वे सभी न्यायिक निर्णयों, विशेषकर भूमि अधिकारों व ग्राम प्रधानी आदि से सम्बन्धित निर्णयों की पुष्टि करते थे।

राजस्व व्यवस्था

शिवाजी के आदर्श स्वराज्य में आर्थिक दृष्टि से समृद्ध और सुखी लोगों की संकल्पना अन्तःनिहित थी। वे जानते थे कि शासक का पहला कर्तव्य है अपनी प्रजा को समृद्ध करना। वे अपने राज्य को आर्थिक रूप से सबल व सक्षम बनाने के लिये जीवन पर्यन्त यत्नरत रहे। जिस तरह शिवाजी ने खेतिहरों को प्रश्रय एवं कृषि को प्रोत्साहन दिया और कृषि मराठा अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनी, अपने अधिराज्य में व्यापार, वाणिज्य व उद्योग के विकास में जो उन्होंने तीव्र रुचि दर्शायी तथा राज्य में वित्तीय साधन बढ़ाने के लिये उन्होंने जो न्यायिक उपाय किये, उनके ये सभी प्रयास यह सिद्ध करते हैं कि शिवाजी में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की अच्छी ख़ासी समझ थी। इस प्रकार, शिवाजी ने न केवल स्वराज्य की स्थापना की, बल्कि उन्हेंने इसे स्थायित्व और य़ोस आधार भी प्रदान किया।[20] शिवाजी की इस शानदार उपलब्धि का सार उनके अष्टप्रधान के रामचन्द्रपन्त अमात्य नामक एक मंत्री ने एक वाक्य में ही समेट दिया हैः

“केवळ नूतन सृष्टिटीच निर्माण केली” (उन्होंने पूर्णतः एक नयी व्यवस्था को जन्म दिया)।[21]

शिवाजी के राज्य में अहमदनगर एवं बीजापुर के सुल्तानों और मुग़ल सम्राट से विजित क्षेत्र शामिल थे। इस प्रकार, मराठा राज्य में अलग-अलग राजस्व व्यवस्थायें विद्यमान थीं। नवार्जित क्षेत्रों में, रैयतें पहलेमीरसदर के नाम से ज्ञात वंशानुगत ज़मीन्दारों के अध्यधीन थे और ये ज़मीन्दार अत्यधिक ताक़तवर हो गये थे और निर्दयता के साथ कर वसूलते थे। शिवाजी ने इन ज़मीन्दारों के महलों को ध्वस्त कर दिया और ताक़तवर जगहों पर अपनी सेना तैनात करते हुए मीरसदरों से सभी शक्तियाँ छीन लीं। उन्हें अपने नियंत्रण में ले लिया और गाँव से मिलने वाले निश्चित राजस्व की सही गणना करने के बाद उनकी बक़ाया राशि निर्धारित की गयी।[22] इसके साथ-साथ, रैयतों को इन जागीरदारों के चंगुल से मुक्त कर दिया तथा इन्हें देश के राजस्व प्रबन्धन में हस्तक्षेप नहीं करने दिया और रैयतों पर राजनीतिक प्रवर (सामन्ती स्वामी) के रूप में धौंस जमाने या उन्हें तंग करने के इनके सभी अधिकार छीन लिए।[23]

अधिक महत्व की बात यह है कि शिवाजी ने राजस्व वसूली के लिए एक सामान्य प्रणाली स्थापित कर वित्तीय एकरूपता लाने का प्रयास किया। इसके लिए, शिवाजी ने मलिक अम्बर (दक्कन में अहमदनगर सल्तनत के पेशवा {प्रधान मंत्री}) जिन्हें दक्कन के अधिकांश क्षेत्र में राजस्व बन्दोबस्ती क्रियान्वित करने का श्रेय प्राप्त है, की राजस्व व्यवस्था को पुनर्प्रचलित किया और खेतिहर किसानों द्वारा देय भाड़े एवं अन्य बक़ाये के निर्धारण हेतु हर प्रान्त में भूमि का सर्वेक्षण कराया गया। शिवाजी द्वारा अपनायी गयी अम्बर की व्यवस्था में मुख्य विशेषतायें ये थीं: (i) ज़मीनों का उर्वरता के अनुसार वर्गीकरण; (ii) उनकी उपज का अभिनिश्चय; (iii) सरकार की हिस्सेदारी का नियतन; (iv) भाड़ों का वस्तु या मुद्रा के रूप में समाहरण; (v) किसानों से राजस्व वसूली के लिए मध्यवर्ती वसूली अभिकर्ताओं (बिचौलियों) की प्रथा का उन्मूलन। तगाई और इस्तवा सिद्धान्तों का उपयोग करते हुए नई ज़मीनें जोतने योग्य बनायी गयीं और किसान को बीजों व पशुओं की इमदाद दी गयी। नये खेतिहर किसानों को बीज, पशु दिये गये और उन्हें ऋण भी उपलब्ध कराये गये। इन ऋणों की वसूली आने वाले वर्षों में की जाती रही। गाँवों का कर निर्धारण करते समय खेती-योग्य बञ्जर- भूमि को शामिल नहीं किया जाता था। बाद में, जब कुछ बञ्जर-भूमि खेत-योग्य कर ली जाती, तब उस भूमि पर शुरुआत में मामूली कर वसूला जाता था।[24]

भू राजस्व के अलावा, राजकोष में अन्य अनेक स्रोतों से राजस्व प्राप्ति हो रही थी, जैसे सीमाशुल्क, न्यायिक शुल्क एवं जुर्माना, वन राजस्व, ढलाई से लाभ, प्रजा एवं अधिकारियों से उपहार, राजगामी एवं ज़ब्तियाँ, शत्रु क्षेत्र की लूट, युद्ध लूट का माल, जलयानों की बन्दी, विभिन्न प्रकार के उपकर और अन्तिम किन्तु कम नहीं चौथ एवं सरदेशमुखी । चौथ अनिवार्यतः उन राज्यों द्वारा अदा किया जाने वाला कर था, जो अपने राज्यों के भीतर मराठों का प्रवेश नहीं चाहते थे। चौथ, इस प्रकार, एक प्रकार का संरक्षण धन था, जो यह कर अदा करने वाले राज्य मराठा आक्रमण से बचने के लिये उन्हें देते थे। यह वार्षिक कर था, जिसे राजस्व या उपज के मूल्यानुसार 25% की दर से वसूला जाता था। दूसरी ओर, सरदेशमुखी ऐसा 10% अतिरिक्त कर था, जिसे शिवाजी मराठा राज्यक्षेत्र के वंशानुगत सामन्ती स्वामियों से वसूलते थे।[25]

न्यायिक व्यवस्था

मराठा राज्य में, मनुस्मृति, शुक्रनीति, याज्ञवल्क्य समृति, व्यवहार मौख्य और कमलाकर विधिक विवादों में प्राधिकृत सन्दर्भ के रूप में उद्धृत किये जाते थे। दीवानी दावों में मिताक्षरा विधि के अनुसार निर्णय दिये जाते थे। विभिन्न प्रकार के मामलों को निपटाने के लिये, न्यायिक निकायों के रूप में अनेक सभायें स्थापित की गयीं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण निकाय के रूप में राज सभा का गठन किया गया, जिसमें राजा, उनके मंत्री, राज्य के महत्वपूर्ण अधिकारी, जिस जगह विवाद पैदा हुआ था, उस जगह के व्यक्ति शामिल थे। पाली गाँव की पाटिली के बारे में खरड़े भाई बनाम कल्भर भाई के मामले का वर्णन करना यहाँ उचित लगता है क्योंकि इस मामले की सुनवाई उस परिषद ने की, जिसमें शिवाजी, पेशवा, न्यायाधीश, पण्डितराव, देशमुख, देशपाण्डे और पाली गाँव के पाटिल शामिल थे। यहाँ हमें दावों की सुनवाई करने एवं फ़ैसला लेने के दौरान अपनायी गयी प्रक्रिया का जानकारी मिलती है। यह पाया गया कि इस मामले में कोई निर्णय उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर नहीं लिया जा सकता। अतएव, शिकायतकर्ता को कड़ी जाँच-परख से गुज़ारा गया, जिसमें वह असफल रहा और परिणामस्वरूप वह मुक़दमा हार गया।[26]

मराठा राज्य क्षेत्र में शिवाजी काल के दौरान प्रचलित अन्य न्यायालयों में से, धर्मसभा, ब्राह्मणसभा और देशक सभा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ब्राह्मण सभा को उच्च चरित्रवान विशिष्ट विद्वान सुशोभित करते थे। कभी कभी जटिल मामलों पर निर्णय लेने के लिये बनारस से विद्वानों को बुलाया जाता था। इनमें से एक परिषद को शिवाजी ने अपने क्षत्रिय मूल के बारे में एवं राज्याभिषेक समारोह को वैदिक मंत्रों के साथ आयोजित करने के बारे में निर्णय लेने के लिये बुलवाया था। देशक सभा में सामान्यतः देशमुख, देशपाण्डे, गाँवों के पाटिल, बलूत और परगना में शामिल कस्बों के शेठ महाजन होते थे। परगना के अधिकारी जैसे हवलदार, थानेदार, सर्नोबत, कार्कुन, सबणीस, चिटणीस, कारखाणीस, सरग्रोह, नायकवाड़ी आदि इस परिषद के सदस्य हुआ करते थे। जिस मामले का सम्बन्ध विभिन्न गाँवों से होता था, वह मामला इस परिषद द्वारा निर्णीत किया जाता था। कोई पक्षकार यदि गाँव पञ्चायत के फ़ैसले से असन्तुष्ट होता, तो वह इस मामले की देशक सभा द्वारा पुनर्सुनवायी का अनुरोध कर सकता था। ऐसा लगता है कि धर्म सभा के अध्यक्ष धर्म विषयक विभाग के प्रधानपण्डितराव होते थे, जिन्हें धर्म शास्त्र के तीनों अंगों - आचार, व्यवहार एवं प्रायश्चित से सम्बन्धित राजा द्वारा जारी सभी प्रलेखों पर प्रतिहस्ताक्षर करने का अधिकार प्राप्त था। पण्डितराव में कुछ परिशोधान विषयक शक्तियाँ निहित थीं; अन्यथा, वे पन्थ-निरपेक्ष न्यायालयों के निर्णयों का अनुमोनदन न कर पाते।[27]

सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि शिवाजी ने भारत के प्राचीन ग्रन्थों में यथा अनुशंसित लोगों को अधिकाधिक न्यायिक स्वायत्तता सोंपी। शुक्र के अनुसार, यह अपेक्षित है कि खेतिहर किसान, कारीगर, कलाकार, सूदख़ोर, निगम, नर्तक, वैरागी और चोर अपने विवाद अपनी प्रथाओं के अनुसार सुलझायें। इस प्रकार, शिवाजी ने सभी दीवानी मामलों और सामान्य आपराधिक मामलों पर भी स्थानीय स्तर के जन न्यायालयों को फ़ैसले करने की अनुमति दी। गाँवों में, शिकायतकर्ता अपना मसला पटेल के सामने ले जाता था। पटेल अपने स्तर पर मामला सुलझाने की कोशिश करने के बाद, गाँव के कुछ बुज़ुर्गों को बुलाता जो एक साथ बैठ कर पक्षकारों की सुनवायी करते थे। सारांश जो प्रस्तुत साक्ष्यों का सार था,और इसे गाँव के लेखक द्वारा शब्दबद्ध किया जाता था

और इस सारांश के कार्यान्वयन का दायित्व मामलतदार पर था। इस कवायद का प्रयोजन थाः मध्यस्थता के ज़रिये मामले का शान्तिपूर्ण निपटान। मध्यस्थता के असफल रहने पर, मामला गाँव में पदस्थ पटेल एवं उपनगर क्षेत्रों में शेठ महाजन अथवा प्रमुख व्यापारी द्वारा नियुक्त पञ्चायत के पास निर्णयार्थ स्थानान्तरित कर दिया जाता। पञ्चायत के निर्णय की अपील मामलतदार को की जा सकता थी। यदि सम्बन्धित पक्षकार यह सिद्ध नहीं कर पाते कि पञ्चायत पूर्वाग्रहयुक्त अथवा भ्रष्ट है, तो एसी स्थिति में आम तौर पर मामलतदार पञ्चायत के निर्णय की पुष्टि कर देते थे। महत्वपूर्ण वादों में, तथापि, मामलतदार का यह कर्तव्य था कि वह माध्यस्थ नियुक्त करे, जिनके सदस्यों का चयन वाद के पक्षकारों के अनुमोदन से तथा अकसर उनके सुझाव पर किया जाता था। ऐसे मामलों में, पञ्चायत का निर्णय पेशवा अथवा उनके विधि मंत्री न्यायाधीश के सम्मुख अपीलाधिकार के अध्यधीन था। इस प्रकार, पञ्चायत व्यवस्था के तहत स्थानीय स्तर पर विधि प्रशासन में काफ़ी हद तक स्वायत्तता विद्यमान थी।[28]

 

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