“भगवान शिव के साक्षात् अवतार, जिनके जन्म से बहुत पहले भविष्यवाणियों की मुनादी हो चुकी थी; तथा म्लेच्छों के चंगुल से हिन्दुओं के मुक्तिदाता के रूप में जिनके जन्म की उत्कट प्रतीक्षा सभी महात्मा एवं महाराष्ट्र के सन्त अत्यन्त उत्सुकतावश कर रहे थे, तथा जो मुग़लों के विनाशकारी क़ाफ़िलों की लूट-पाट से रोंदे गये धर्म की पुनर्स्थापना में सफल हुये।”[1] ------- शिवाजी के बारे में स्वामी विवेकान्द
इतिहास की वीथियों में, हमें ऐसे उत्कृष्ट शासकों के बहुत कम दृष्टान्त मिलते हैं, जिनकी विरासत बाद की पीढ़ियों को सतत प्रेरणास्रोत रही हो। ऐसे ही एक परोपकारी शासक हैं छत्रपति शिवाजी महाराज, जिन्हें ‘मराठा राष्ट्र का जनक’ भी कहा जाता है। उन्होंने वैयक्तिक निष्ठा, धार्मिक सहिष्णुता, देशभक्ति एवं लोक कल्याण जैसे मूल्यों का न केवल स्वयं पोषण किया, बल्कि उनका समाज में संवर्धन भी किया। महान विजेता व राजनयिक तो वे थे ही, साथ ही वे अपनी प्रजा के प्रबुद्ध शासक भी थे। शिवाजी का सैन्य कौशल जहाँ उनके चातुर्य युक्त मस्तिष्क का एक पक्ष था, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपनी प्रशासनिक क्षमता के कारण एक जनप्रिय शासक के रूप में लोगों के दिलों पर राज किया। हमारे वर्तमान लोक प्रशासकों को ख़ासकर बहुत कुछ सीखना है इस महान शासक से, जिनके बारे में उनके गुरु समर्थ रामदास ने क्या ख़ूब कहा हैः
“वह उच्च पर्वत सदृश दृढ़निश्चयी है। वह असंख्य प्रजा का पालक है। वह अपने आदर्शों से कभी विमुख नहीं होता। वह समृद्ध बैरागी है। उसके सत्कर्मों का धारा अविरल प्रवाहित हो रही है। उसके गुणों की महानता की तुलना दूसरों से कैसे की जा सकती है? वह वैभवयुक्त है, विजेता है, वीर है, सर्वगुणसम्पन्न है, परोपकारी है, राजनयिक है, और बुद्धिमान राजा भी है। वह सद्गुणों की खान है और तर्क, परोपकार व धर्म के प्रति पूर्णतः समर्पित है। वह सर्वज्ञ होते हुए भी विनम्र है। वह इरादों का पक्का, उदार, गम्भीर, बहादुर तथा कर्म हेतु सदैव तत्पर रहता है। वह राजाओं में श्रेष्ठतम है और उसने युक्तिसम्पन्नता में अन्य राजाओं को परास्त कर दिया है। वह देवताओं, धर्म, गायों एवं ब्राह्मणों का रक्षक है। उसके हृदय में साक्षात् ईश्वर प्रतिष्ठापित हैं, जो उसे सतत प्रेरणा दे रहे हैं। विद्वान, साधु, बलिदान-समर्पित ब्राह्मण और दार्शनिक- वह सबका समर्थन करता है। इस संसार में उसके जैसा धर्म रक्षक कोई दूसरा नहीं है। यदि महाराष्ट्र में धर्म आज साँस ले रहा है, तो उसका एक मात्र कारण वही है।”[2]
शिवाजी एक लोकप्रिय राजा थे जिन्होंने अपने राज्य के प्रशासनिक मामलों पर कड़ी निगरानी रखी। सभी शक्तियाँ यद्यपि उनमें केन्द्रित थीं, तथापि वे अपने मंत्रियों की सलाह से शासन करते थे। आम जनता उन्हें अटूट श्रद्धा भाव से देखती थी और उन्हें अपना सबसे बड़ा शुभेच्छु मानती थी।[3] उन्होंने नागरिक संस्थाओं के निर्माण की नींव हिन्दवी स्वराज्य के आदर्श पर रखी, जिसका आशय हैः “हिन्दू जनों का स्व-शासन” और “विदेशी शासन से मुक्ति”। मुग़लों के शासन से राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन की सफलता और धर्म पर आधारित स्वाधीन राज्य की स्थापना काफ़ी हद तक शिवाजी द्वारा स्थापित नागरिक और प्रशासनिक संस्थाओं की सक्रियता के फलस्वरूप ही सम्भव हो सकी। उनकी प्रशासनिक व्यवस्था में मौलिकता है, जिसने भारत में तत्समय प्रचलित शासन व्यवस्थाओं में नई ऊर्जा का सञ्चार किया।[4] शिवाजी वस्तुतः महाभारत, धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र में प्रतिपादित प्रचीन हिन्दू राज्य-व्यवस्था को पुनर्जीवित करना चाहते थे, जिसके अनुसार राजा को राज करना चाहिये, शासन नहीं और उन्होंने केन्द्रीकृत राजतंत्रीय निरंकुशतावाद को सिरे से ख़ारिज किया।[5] स्वराज्य प्राप्ति के लिए शिवाजी ने जो प्रशासनिक संस्थाएं स्थापित कीं, उन संस्थाओं के कारण ही उन्हें मध्य युग के महानतम राजनयिक का दर्जा प्राप्त है।
शिवाजी ने प्रचीन राज्य-व्यवस्था को पुनर्जीवित किया, जैसा कि अष्टप्रधान नामक आठ मंत्रियों की परिषद के गठन से स्पष्ट है। हर मंत्री को एक स्वतंत्र विभाग के मुखिया के रूप में ज़िम्मेदारी दी गयी थी। शिवाजी भारत के शासकों में सिरमौर इसलिये थे कि खेती-किसानी के कल्याण में उनकी तीव्र अभिरुचि थी। उनका राजस्व प्रशासन भी नागरिक प्रशासन की भाँति कुशलता से सञ्चालित किया जाता था। राजस्व वसूली के दौरान यह सुनिश्चित किया जाता था कि बिचौलिये रैयतों पर अत्याचार न करें। न्यायिक व्यवस्था में भी, शिवाजी ने उन प्राचीन विधियों को लागू किया, जो तत्समय की परिस्थितियों के अनुकूल थीं। सामाजिक समरसता उनकी राज-व्यवस्था का अविच्छिन्न अंग थी।[6]
Shobhit Mathur highlights valuable insights on the Maratha Empire
चित्र को पैमाने पर नहीं खींचा गया है, और इसे भौगोलिक प्रसार के सटीक प्रतिनिधित्व के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए।
सूत्रों को जानें
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[1] https://katha.vkendra.org/2013/06/21-june-swami-vivekananda-on-shivaji.html
[2] बाल कृष्ण, Shivaji, the Great, द आर्य बुक डिपो कोल्हापुर, 1940, पृ 14
[3] देखें, जेम्स डब्ल्यू लेन, Hindu King in Islamic India, ऑक्सफ़ोर्ड यूनीवर्सिटी प्रैस, न्यू यॉर्क, 2003
[4] गोविन्द सखाराम सरदेसाई, New History of Marathas; Shivaji & His Line (1600-1707), खण्डI, फ़ीनिक्स पब्लीकेशन, बॉम्बे, 1946, पृ 66
[5] के.पी. जायसवाल, Hindu Polity: A Constitutional History of India in Hindu Times, द बेंगलोर प्रिण्टिंग एण्ड पब्लिशिंग कं., लि., बेंगलोर सिटी, 1943, पृ 365
[6] ईश्वरी प्रसाद, History of Mediaeval India, द इण्डियन प्रैस लि., इलाहाबाद, 1976